Textbook | NCERT |
Board | CBSE Board, UP board, JAC board, HBSE Board, Bihar Board, PSEB board, RBSE Board, UBSE Board |
Class | 6th Class |
Subject | History | Social Science |
Chapter | Chapter 9 |
Chapter Name | व्यापारी, राजा और तीर्थयात्री |
Topic | व्यापारी, राजा और तीर्थयात्री CBSE Class 6 History Chapter 9 Notes in Hindi |
Medium | Hindi |
Especially Designed Notes for | CBSE, ICSE, IAS, NET, NRA, UPSC, SSC, NDA, All Govt. Exam |
व्यापारी, राजा और तीर्थयात्री
व्यापार और व्यापारियों के बारे में जानव नकारी
- व्यापारी वह व्यक्ति होता है जो वस्तुओं को जहाँ वे बनते हैं वहाँ से उन स्थानों तक ले जाते हैं जहाँ वे बिकते हैं।
- दक्षिण भारत सोना, मसाले, खास तौर पर काली मिर्च तथा कीमती पत्थरों के लिए प्रसिद्ध था।
- काली मिर्च की रोमन साम्राज्य में इतनी माँग थी कि इसे ‘काले सोने’ के नाम से बुलाते थे।
- व्यापारी इन सामानों को समुद्री जहाज़ों और सड़कों के रास्ते रोम पहुँचाते थे।
- दक्षिण भारत में ऐसे अनेक रोमन सोने के सिक्के मिले हैं। इससे यह अंदाजा लगाया जाता है कि उन दिनों रोम के साथ बहुत अच्छा व्यापार चल रहा था।
- व्यापारियों ने कई समुद्री रास्ते खोज निकाले। इनमें से कुछ समुद्र के किनारे चलते थे।
- कुछ अरब सागर और बंगाल की खाड़ी पार करते थे। नाविक मानसूनी हवा का फ़ायदा उठाकर अपनी यात्रा जल्दी पूरी कर लेते थे।
- वे अफ़्रीका या अरब के पूर्वी तट से इस उपमहाद्वीप के पश्चिमी तट पर पहुँचना चाहते थे तो दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के साथ चलना पसंद करते थे।
- इन लंबी यात्राओं के लिए मज़बूत जहाज़ों का निर्माण किया जाता था।
समुद्र तटों से लगे राज्य
- इस उपमहाद्वीप के दक्षिणी भाग में बड़ा तटीय प्रदेश है। इनमें बहुत-से पहाड़, पठार और नदी के मैदान हैं।
- नदियों के मैदानी इलाकों में कावेरी का मैदान सबसे उपजाऊ है।
- मैदानी इलाकों तथा तटीय इलाकों के सरदारों और राजाओं के पास धीरे-धीरे काफी सम्पत्ति और शक्ति हो गई।
- संगम कविताओं में मुवेन्दार की चर्चा मिलती है। यह एक तमिल शब्द है, जिसका अर्थ तीन मुखिया है।
- इसका प्रयोग तीन शासक परिवारों के मुखियाओं के लिए किया गया है। ये थे चोल, चेर तथा पांड्य, जो करीब 2300 साल पहले दक्षिण भारत में काफी शक्तिशाली माने जाते थे।
- इन तीनों मुखियाओं के अपने दो-दो सत्ता केंद्र थे। इनमें से एक तटीय हिस्से में और दूसरा अंदरूनी हिस्से में था।
- इस तरह छह केंद्रों में से दो बहुत महत्वपूर्ण थे। एक चोलों का पत्तन पुहार या कावेरीपट्टिनम, दूसरा पांड्यों की राजधानी मदुरै।
ये मुखिया लोगों
- ये मुखिया लोगों से नियमित कर के बजाय उपहारों की माँग करते थे।
- कभी-कभी ये सैनिक अभियानों पर भी निकल पड़ते थे
- आस-पास के इलाकों से शुल्क वसूल कर लाते थे।
- इनमें से कुछ धन वे अपने पास रख लेते थे, बाकी अपने समर्थकों, नाते-रिश्तेदारों, सिपाहियों तथा कवियों के बीच बाँट देते थे।
अनेक संगम कवियों ने उन मुखियाओं की प्रशंसा में कविताएँ लिखी हैं जो उन्हें कीमती जवाहरात, सुंदर कपड़े दिया करते थे। घोड़े, हाथी,
सातवाहन
- इसके लगभग 200 वर्षों के बाद पश्चिम भारत में सातवाहन नामक राजवंश का प्रभाव बढ़ गया।
- सातवाहनों का सबसे प्रमुख राजा गौतमी पुत्र श्री सातकर्णी था।
- उसके बारे में हमें उसकी माँ, गौतमी बलश्री द्वारा दान किए एक अभिलेख से पता चलता है।
- वह और अन्य सभी सातवाहन शासक दक्षिणापथ के स्वामी कहे जाते थे।
- दक्षिणापथ का शाब्दिक अर्थ दक्षिण की ओर जाने वाला रास्ता होता है।
- पूरे दक्षिणी क्षेत्र के लिए भी यही नाम प्रचलित था।
- सातकर्णी ने पूर्वी, पश्चिमी तथा दक्षिणी तटों पर अपनी सेनाएँ भेजीं।
रेशम मार्ग की कहानी
- कीमती, चमकीले रंग और चिकनी, मुलायम बनावट की वजह से रेशमी कपड़े अधिकांश समाज में बहुमूल्य माने जाते हैं।
- रेशमी कपड़ा तैयार करना एक जटिल प्रक्रिया है।
- रेशम के कीड़े से कच्चा रेशम निकालकर, सूत कताई होती है, और फिर उससे कपड़ा बुना जाता है।
- रेशम बनाने की तकनीक का आविष्कार सबसे पहले चीन में करीब 7000 साल पहले हुआ।
- इस तकनीक को उन्होंने हज़ारों साल तक बाकी दुनिया से छुपाए रखा।
- पर चीन से पैदल, घोड़ों या ऊँटों पर कुछ लोग दूर-दूर की जगहों पर जाते थे और अपने साथ रेशमी कपड़े भी ले जाते थे।
- जिस रास्ते से ये लोग यात्रा करते थे वह रेशम मार्ग (सिल्क रूट) के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
पश्चिम में रेशम
- चीन के शासक ईरान और पश्चिमी एशिया के शासकों को उपहार के तौर पर रेशमी कपड़े भेजते थे ।
- यहाँ से रेशम के बारे में जानकारी और भी पश्चिम की ओर फैल गई।
- करीब 2000 साल पहले रोम के शासकों और धनी लोगों के बीच रेशमी कपड़े पहनना एक फ़ैशन बन गया।
- इसकी कीमत बहुत ही ज्यादा होती थी। क्योंकि चीन से इसे लाने में दुर्गम पहाड़ी और रेगिस्तानी रास्तों से होकर जाना पड़ता था।
- यही नहीं, रास्ते के आस-पास रहने वाले लोग व्यापारियों से यात्रा – शुल्क भी माँगते थे।
- कुछ शासक इसके बड़े-बड़े हिस्सों पर अपना यंत्रच थे क्योंकि इ इस रास्ते पर यात्रा कर रहे व्यापारियों से उन्हें कर, शुल्क तथा तोहफ़ों के ज़रिए लाभ मिलता था।
- इसके बदले, ये शासक इन व्यापारियों को अपने राज्य से गुज़रते वक्त लुटेरों के आक्रमणों से सुरक्षा देते थे।
रेशम मार्गों को नियंत्रित करने वाले शासक
- सिल्क रूट पर नियंत्रण रखने वाले शासकों में सबसे प्रसिद्ध कुषाण थे।
- करीब 2000 साल पहले मध्य एशिया तथा पश्चिमोत्तर भारत पर इनका शासन था।
- पेशावर और मथुरा इनके दो मुख्य शक्तिशाली केंद्र थे। तक्षशिला भी इनके ही राज्य का हिस्सा था।
- इनके शासनकाल में ही सिल्क रूट की एक शाखा मध्य एशिया से होकर सिंधु नदी के मुहाने के पत्तनों तक जाती थी।
- फिर यहाँ से जहाजों द्वारा रेशम, पश्चिम की ओर रोमन साम्राज्य तक पहुँचता था।
- इस उपमहाद्वीप में सबसे पहले सोने के सिक्के जारी करने वाले शासकों में कुषाण थे। सिल्क रूट पर यात्रा करने वाले व्यापारी इनका उपयोग किया करते थे।
बौद्ध धर्म का प्रसार
- कुषाणों का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क था। उसने करीब 1900 साल पहले शासन किया।
- उसने एक बौद्ध परिषद् का गठन किया, जिसमें एकत्र होकर विद्वान महत्वपूर्ण विषयों पर विचार-विमर्श करते थे।
- बुद्ध की जीवनी बुद्धचरित के रचनाकार कवि अश्वघोष, कनिष्क के दरबार में रहते थे।
- अश्वघोष तथा अन्य बौद्ध विद्वानों ने अब संस्कृत में लिखना शुरू कर दिया था।
इस समय बौद्ध धर्म की एक नई धारा महायान का विकास हुआ। इसकी दो मुख्य विशेषताएँ थी।
- पहले, मूर्तियों में बुद्ध की उपस्थिति सिर्फ़ कुछ संकेतों के माध्यम से दर्शाई जाती थी।
- मिसाल के तौर पर उनकी निर्वाण प्राप्ति को पीपल के पेड़ की मूर्ति द्वारा दर्शाया जाता था पर अब बुद्ध की प्रतिमाएँ बनाई जाने लगीं।
- इनमें से अधिकांश मथुरा में, कुछ तक्षशिला में बनाई जाने लगीं।
- दूसरा परिवर्तन बोधिसत्त्व में आस्था को लेकर आया ।
- बोधिसत्त्व उन्हें कहते हैं जो ज्ञान प्राप्ति के बाद एकांत वास करते हुए ध्यान साधना कर सकते थे।
- वे लोगों को शिक्षा देने और मदद करने के लिए सांसारिक परिवेश में ही रहना ठीक समझने लगे।
- धीरे-धीरे बोधिसत्त्व की पूजा काफी लोकप्रिय हो गई। और पूरे मध्य एशिया, चीन और बाद में कोरिया तथा जापान तक भी फैल गई।
बौद्ध धर्म और भारत
- बौद्ध धर्म का प्रसार पश्चिमी और दक्षिणी भारत में हुआ, जहाँ बौद्ध भिक्खुओं के रहने के लिए पहाड़ों में दर्जनों गुफाएँ खोदी गईं।
- इन गुफाएँ को राजा और रानियों के आदेश पर बनाई गईं तो कुछ व्यापारियों तथा कृषकों द्वारा ।
- इनमें से ज़्यादातर गुफाएँ पश्चिमी घाट के दर्रों के पास बनाई गई थीं।
- दक्कन के शहरों और तटों के समृद्ध बंदरगाहों और इन्हें जोड़ने वाली सड़कें भी इन्हीं दरों से होकर गुजरती थीं।
- ऐसा लगता है कि यात्रा करने वाले व्यापारी इन गुफाओं वाले मठों में विश्राम के लिए रुकते थे।
- बौद्ध धर्म दक्षिण-पूर्व की ओर श्रीलंका, म्यांमार, थाइलैंड तथा इंडोनेशिया सहित दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य भागों में भी फैला।
- थेरवाद नामक बौद्ध धर्म का आरंभिक रूप इन क्षेत्रों में कहीं अधिक प्रचलित था
तीर्थयात्रियों की जिज्ञासा
- तीर्थयात्री उन पुरुषों और महिलाओं को संदर्भित करता है जो पूजा करने के लिए पवित्र स्थानों की यात्रा करते हैं।
- तीर्थयात्री अक्सर व्यापारियों के साथ यात्रा करते थे।
- चीनी बौद्ध तीर्थयात्री बहुत लोकप्रिय थे जिन्होंने बुद्ध के जीवन और मठों से जुड़े स्थानों का दौरा किया।
कुछ चीनी बौद्ध तीर्थयात्री हैं:
- फा-शिएन काफी प्रसिद्ध है। वह करीब 1600 साल पहले आया ।
- श्वैन त्सांग 1400 साल पहले भारत आया
- और उसके करीब 50 साल बाद इत्सिंग आया।
तीर्थयात्रियों की यात्रा का लेखा-जोखा
- इनमें से प्रत्येक तीर्थयात्री ने अपनी यात्रा का वर्णन लिखा।
- इन्होंने अपनी यात्रा के दौरान आई मुश्किलों के बारे में भी लिखा। इन यात्राओं में कई वर्ष लग जाया करते थे।
- जिन देशों और मठों को उन्होंने देखा, उनके बारे में उन्होंने लिखा और उन किताबों के बारे में भी उन्होंने लिखा, जिन्हें वे अपने साथ ले गए थे।
श्वैन त्सांग कौन था
- श्वैन त्सांग भू-मार्ग से (उत्तर-पश्चिम और मध्य – एशिया होकर) चीन वापस लौटा।
- उसने सोने, चाँदी और चंदन की लकड़ी की बनी बुद्ध की मूर्तियाँ तथा 600 से भी ज्यादा पाण्डुलिपियाँ एकत्र की थीं। इन्हें वह लगभग 20 घोड़ों पर लादकर ले गया ।
- पर इसमें से 50 पाण्डुलिपियाँ उस समय खो गईं, जब सिंधु नदी पार करते हुए उसकी नाव उलट गई ।
- अपने जीवन का बाकी हिस्सा उसने बची हुई पाण्डुलिपियों का संस्कृत से चीनी अनुवाद करने में लगा दिया।
भक्ति की शुरुआत
- इन्हीं दिनों देवी-देवताओं की पूजा का चलन भी शुरू हुआ। बाद में हिन्दू धर्म की यह प्रमुख पहचान बन गई।
- इनमें शिव, विष्णु और दुर्गा जैसे देवी-देवता शामिल हैं।
- भक्ति उस समय काफी लोकप्रिय परम्परा बन गई। किसी देवी या देवता के प्रति श्रद्धा को ही भक्ति कहा जाता है।
- भक्ति का पथ सबके लिए खुला था, चाहे वह धनी हो या गरीब, ऊँची जाति का हो या नीची जाति का, . स्त्री हो या पुरुष ।
- भक्ति मार्ग की चर्चा हिन्दुओं के पवित्र ग्रंथ भगवद्गीता में की गई है। भगवद्गीता महाभारत एक हिस्सा है।
- इसमें भगवान कृष्ण अपने भक्त और मित्र अर्जुन को सभी धर्मों को छोड़कर उनकी शरण में आने का उपदेश देते हैं।
- केवल कृष्ण अर्जुन को सारी बुराइयों से मुक्ति दिल सकते हैं। पूजा का यह रूप धीरे-धीरे देश के विभिन्न में फैलने लगा।
- भक्ति मार्ग अपनाने वाले लोग आडंबर के साथ पूजा-पाठ करने के बजाए ईश्वर के प्रति लगन पर जोर देते थे।
भक्ति प्रणाली
- भक्ति मार्ग अपनाने वालों का यह मानना है कि अगर अपने आराध्य देवी या देवता की सच्चे मन से पूजा की जाए, तो वह उसी रूप में दर्शन देंगे, जिसमें भक्त उसे देखना चाहता है ।
- इसलिए आराध्य देवी या देवता मानव रूप में भी हो सकते हैं या फिर सिंह, पेड़ या अन्य किसी भी रूप में।
- जैसे-जैसे इस विचार को समाज द्वारा स्वीकृति मिलती गई, कलाकार, देवी-देवताओं की एक से बढ़कर एक खूबसूरत मूर्तियाँ तैयार करने लगे।
- इन देवताओं को मंदिरों में और घरों में विशेष स्थानों पर रखा गया क्योंकि वे विशेष थे।
- भक्ति ने ही कला-मूर्तिकला, काव्य और स्थापत्य कला में श्रेष्ठतम भावों को प्रेरित किया।