NCERT Notes For Class 9 History Chapter 4 In Hindi वन्य-समाज और उपनिवेशवाद

Class 9 History Chapter 4 वन्य-समाज और उपनिवेशवाद In Hindi

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NCERT Notes For Class 9 History Chapter 4 वन्य-समाज और उपनिवेशवाद In Hindi

 

औद्योगीकरण के दौर में सन् 1700 से 1995 के बीच 139 लाख वर्ग किलोमीटर जंगल यानी दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 9.3 प्रतिशत भाग औद्योगिक इस्तेमाल , खेती – बाड़ी , चरागाहों व ईंधन की लकड़ी के लिए साफ़ कर दिया गया ।

वनों का विनाश क्यों ?

  • वनों के लुप्त होने को सामान्यतः वन विनाश कहते हैं । वन विनाश कोई नयी समस्या नहीं है ।

पेड़ों को बड़े पैमाने पर क्यों काटा गया

  • जनसंख्या में वृद्धि से खाद्य और औद्योगिक उत्पादों की मांग में तेजी से वृद्धि हुई थी
  • यूरोपीय उपनिवेशों का विस्तार भी था बड़ा कारण
  • 18वीं और 19वीं, 20वीं शताब्दी बड़े पैमाने पर वनों की कटाई के बड़े प्रमाण हैं

जमीन की बेहतरी

  1. पहली , अंग्रेज़ों ने व्यावसायिक फ़सलों जैसे पटसन , गन्ना , गेहूँ व कपास के उत्पादन को जम कर प्रोत्साहित किया ।
    • उन्नीसवीं सदी के यूरोप में बढ़ती शहरी आबादी का पेट भरने के लिए खाद्यान्न और औद्योगिक उत्पादन के लिए कच्चे माल की ज़रूरत थी ।
    • लिहाज़ा इन फ़सलों की माँग में इज़ाफ़ा हुआ ।
  2. दूसरी वजह यह थी कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में औपनिवेशिक सरकार ने जंगलों को अनुत्पादक समझा ।
    • उनके हिसाब से इस व्यर्थ के बियाबान पर खेती करके उससे राजस्व और कृषि उत्पादों को पैदा किया जा सकता था और इस तरह राज्य की आय में बढ़ोतरी की जा सकती थी ।
    • यही वजह थी कि 1880 से 1920 के बीच खेती योग्य ज़मीन के क्षेत्रफल में 67 लाख हेक्टेयर की बढ़त हुई ।

पटरी पर स्लीपर

इंग्लैंड में लकड़ी की कमी और भारत में प्रभाव

  1. उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक इंग्लैंड में बलूत ( ओक ) के जंगल लुप्त होने लगे थे ।
  2. इसकी वजह से शाही नौसेना के लिए लकड़ी की आपूर्ति में मुश्किल आ खड़ी हुई ।
  3. 1820 के दशक में खोजी दस्ते हिंदुस्तान की वन – संपदा का अन्वेषण करने के लिए भेजे गए ।
  4. एक दशक के भीतर बड़े पैमाने पर पेड़ काटे जाने लगे और भारी मात्रा में लकड़ी का हिंदुस्तान से निर्यात होने लगा ।

रेल लाइन

  1. 1850 के दशक में रेल लाइनों के प्रसार ने लकड़ी के लिए एक नई तरह की माँग पैदा कर दी ।
  2. शाही सेना के आवागमन और औपनिवेशिक व्यापार के लिए रेल लाइनें अनिवार्य थीं ।
  3. इंजनों को चलाने के लिए ईंधन के तौर पर और रेल की पटरियों को जोड़े रखने के लिए ‘ स्लीपरों ‘ के रूप में लकड़ी की भारी ज़रूरत थी ।
  4. एक मील लंबी रेल की पटरी के लिए 1760-2000 स्लीपरों की आवश्यकता पड़ती थी ।
  5. भारत में रेल – लाइनों का जाल 1860 के दशक से तेजी से फैला ।
  6. 1890 तक लगभग 25,500 कि.मी. लंबी लाइनें बिछायी जा चुकी थीं ।
  7. 1946 में इन लाइनों की लंबाई 7,65,000 कि.मी. तक बढ़ चुकी थी ।
  8. रेल लाइनों के प्रसार के साथ – साथ बड़ी तादाद में पेड़ भी काटे गए ।
  9. अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में 1850 के दशक में प्रतिवर्ष 35,000 पेड़ स्लीपरों के लिए काटे गए ।

बागान

  1. यूरोप में चाय , कॉफ़ी और रबड़ की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए इन वस्तुओं के बागान बने और इनके लिए भी प्राकृतिक वनों का एक भारी हिस्सा साफ़ किया गया ।
  2. औपनिवेशिक सरकार ने जंगलों को अपने कब्ज़े में लेकर उनके विशाल हिस्सों को बहुत सस्ती दरों पर यूरोपीय बागान मालिकों को सौंप दिया ।

व्यावसायिक वानिकी की शुरुआत

  • अंग्रेज़ों को इस बात की चिंता थी कि स्थानीय लोगों द्वारा जंगलों का उपयोग व व्यापारियों द्वारा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से जंगल नष्ट हो जाएँगे ।
  • इसलिए उन्होंने डायट्रिच ब्रैंडिस नामक जर्मन विशेषज्ञ को इस विषय पर मशविरे के लिए बुलाया और उसे देश का पहला वन महानिदेशक नियुक्त किया गया ।
  • ब्रैंडिस ने महसूस किया कि लोगों को संरक्षण विज्ञान में प्रशिक्षित करना और जंगलों के प्रबंधन के लिए एक व्यवस्थित तंत्र विकसित करना होगा ।
  • इसके लिए कानूनी मंजूरी की ज़रूरत पड़ेगी ।
  • पेड़ों की कटाई और पशुओं को चराने जैसी गतिविधियों पर पाबंदी लगा कर ही जंगलों को लकड़ी उत्पादन के लिए आरक्षित किया जा सकेगा ।
  • इस तंत्र की अवमानना करके पेड़ काटने वाले किसी भी व्यक्ति को सज़ा का भागी बनना होगा ।
  • इस तरह ब्रैंडिस ने 1864 में भारतीय वन सेवा की स्थापना की और 1865 के भारतीय वन अधिनियम को सूत्रबद्ध करने में सहयोग दिया ।
  • इम्पीरियल फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना 1906 में देहरादून में हुई ।
  • यहाँ जिस पद्धति की शिक्षा दी जाती थी उसे ‘ वैज्ञानिक वानिकी ‘ ( साइंटिफ़िक फ़ॉरेस्ट्री ) कहा गया ।

वैज्ञानिक वानिकी के नाम पर विविध प्रजाति वाले प्राकृतिक वनों को काट डाला गया । इनकी जगह सीधी पंक्ति में एक ही किस्म के पेड़ लगा दिए गए । इसे बागान कहा जाता है ।

वन अधिनियम

  1. 1878 वाले अधिनियम में जंगलों को तीन श्रेणियों में बाँटा गया : आरक्षित , सुरक्षित व ग्रामीण ।
  2. सबसे अच्छे जंगलों को ‘ आरक्षित वन ‘ कहा गया ।
  3. गाँव वाले इन जंगलों से अपने उपयोग के लिए कुछ भी नहीं ले सकते थे ।
  4. वे घर बनाने या ईंधन के लिए केवल सुरक्षित या ग्रामीण वनों से ही लकड़ी ले सकते थे ।

लोगों का जीवन कैसे प्रभावित हुआ ?

ग्रामीण अपनी अलग – अलग ज़रूरतों , जैसे ईंधन , चारे व पत्तों की पूर्ति के लिए वन में विभिन्न प्रजातियों का मेल चाहते थे

ग्रामीणों के लिए वन संसाधनों का उपयोग

  • वन्य इलाकों में लोग कंद मूल फल , पत्ते आदि वन उत्पादों का विभिन्न ज़रूरतों के लिए उपयोग करते हैं ।
  • फल और कंद अत्यंत पोषक खाद्य हैं , विशेषकर मॉनसून के दौरान जब फ़सल कट कर घर न आयी हो ।
  • दवाओं के लिए जड़ी बूटियों का इस्तेमाल होता है , लकड़ी का प्रयोग हल जैसे खेती के औज़ार बनाने में किया जाता है , बाँस से बेहतरीन बाड़े बनायी जा सकती हैं और इसका उपयोग छतरी तथा टोकरी बनाने के लिए भी किया जा सकता है ।
  • सूखे हुए कुम्हड़े के खोल का प्रयोग पानी की बोतल के रूप में किया जा सकता है ।
  • जंगलों में लगभग सब कुछ उपलब्ध है – पत्तों को जोड़ जोड़ कर ‘ खाओ – फेंको ‘ किस्म के पत्तल और दोने बनाए जा सकते हैं ,
  • सियादी ( Bauhiria vahili ) की लताओं से रस्सी बनायी जा सकती है
  • सेमूर ( सूती रेशम ) की काँटेदार छाल पर सब्ज़ियाँ छीली जा सकती हैं
  • महुए के पेड़ से खाना पकाने और रोशनी के लिए तेल निकाला जा सकता है ।
  • वन अधिनियम के चलते देश भर में गाँव वालों की मुश्किलें बढ़ गईं ।
  • इस कानून के बाद घर के लिए लकड़ी काटना , पशुओं को चराना , कंद – मूल – फल इकट्ठा करना आदि रोज़मर्रा की गतिविधियाँ गैरकानूनी बन गईं ।
  • अब उनके पास जंगलों से लकड़ी चुराने के अलावा कोई चारा नहीं बचा और पकड़े जाने की स्थिति में वे न रक्षकों की दया पर होते जो उनसे घूस ऐंठते थे ।

वनों के नियमन से खेती कैसे प्रभावित हुई ?

  1. यूरोपीय उपनिवेशवाद का सबसे गहरा प्रभाव झूम या घुमंतू खेती की प्रथा पर दिखायी पड़ता है ।
  2. एशिया , अफ़्रीका व दक्षिण अमेरिका के अनेक भागों में यह खेती का एक परंपरागत तरीका है ।
  3. इसके कई स्थानीय नाम हैं जैसे दक्षिण पूर्व एशिया में लादिंग , मध्य अमेरिका में मिलपा , अफ्रीका में चितमेन या तावी व श्रीलंका में चेना
  4. हिंदुस्तान में घुमंतू खेती के लिए धया , पेंदा , बेवर , नेवड़ , झूम , पोडू , खंदाद और कुमरी ऐसे ही कुछ स्थानीय नाम हैं ।

घुमंतू खेती की प्रक्रिया

  1. घुमंतू कृषि के लिए जंगल के कुछ भागों को बारी – बारी से काटा और जलाया जाता है ।
  2. मॉनसून की पहली बारिश के बाद इस राख में बीज बो दिए जाते हैं और अक्तूबर – नवंबर में फ़सल काटी जाती है ।
  3. इन खेतों पर दो एक साल खेती करने के बाद इन्हें 12 से 18 साल तक के लिए परती छोड़ दिया जाता है जिससे वहाँ फिर से जंगल पनप जाए ।

झूम खेती के प्रभाव

  1. यूरोपीय वन रक्षकों की नज़र में यह तरीका जंगलों के लिए नुकसानदेह था ।
  2. उन्होंने महसूस किया कि जहाँ कुछेक सालों के अंतर पर खेती की जा रही हो ऐसी ज़मीन पर रेलवे के लिए इमारती लकड़ी वाले पेड़ नहीं उगाए जा सकते ।
  3. साथ ही , जंगल जलाते समय बाकी बेशकीमती पेड़ों के भी फैलती लपटों की चपेट में आ जाने का खतरा बना रहता है ।
  4. घुमंतू खेती के कारण सरकार के लिए लगान का हिसाब रखना भी मुश्किल था ।
  5. इसलिए सरकार ने घुमंतू खेती पर रोक लगाने का फैसला किया ।

शिकार की आज़ादी किसे थी ?

  1. जंगल संबंधी नए कानूनों ने वनवासियों के जीवन को एक और तरह से प्रभावित किया ।
  2. वन कानूनों के पहले जंगलों में या उनके आसपास रहने वाले बहुत सारे लोग हिरन , तीतर जैसे छोटे – मोटे शिकार करके जीवनयापन करते थे ।
  3. यह पारंपरिक प्रथा अब गैर कानूनी हो गयी ।
  4. शिकार करते हुए पकड़े जाने वालों को अवैध शिकार के लिए दंडित किया जाने लगा ।

शिकार बन गया खेल

  • जहाँ एक तरफ़ वन कानूनों ने लोगों को शिकार के परंपरागत अधिकार से वंचित किया , वहीं बड़े जानवरों का आखेट एक खेल बन गया ।
  • हिंदुस्तान में बाघों और दूसरे जानवरों का शिकार करना सदियों से दरबारी और नवाबी संस्कृति का हिस्सा रहा था ।
  • औपनिवेशिक शासन के दौरान शिकार का चलन इस पैमाने तक बढ़ा कि कई प्रजातियाँ लगभग पूरी तरह लुप्त हो गईं ।
  • उनका मानना था कि खतरनाक जानवरों को मार कर वे हिन्दुस्तान को सभ्य बनाएँगे ।
  • बाघ , भेड़िये और दूसरे बड़े जानवरों के शिकार पर यह कह कर इनाम दिए गए कि इनसे किसानों को खतरा है ।
  • 1875 से 1925 के बीच इनाम के लालच में 80,000 से ज़्यादा बाघ , 1,50,000 तेंदुए और 2,00,000 भेड़िये मार गिराए गए ।
  • धीरे – धीरे बाघ के शिकार को एक खेल की ट्रॉफ़ी के रूप में देखा जाने लगा ।
  • अकेले जॉर्ज यूल नामक अंग्रेज़ अफ़सर ने 400 बाघों को मारा था ।
  • प्रारंभ में जंगल के कुछ इलाके शिकार के लिए ही आरक्षित थे ।

नए व्यापार , नए रोज़गार और नई सेवाएँ

  • जंगलों पर वन विभाग का नियंत्रण स्थापित हो जाने से कुछ लोगों को व्यापार के नए अवसरों का लाभ भी मिला ।
  • कई समुदाय अपने परंपरागत पेशे छोड़ कर वन उत्पादों का व्यापार करने लगे ।

वन- उत्पादों का व्यापार

मध्यकाल से ही आदिवासी समुदायों द्वारा बंजारा आदि घुमंतू समुदायों के माध्यम से हाथियों और दूसरे सामान जैसे खाल , सींग , रेशम के कोये , हाथी- दाँत , बाँस , मसाले , रेशे , घास , गोंद और राल के व्यापार के सबूत मिलते हैं ।

व्यापार पर सरकारी नियंत्रण

  1. ब्रिटिश सरकार ने कई बड़ी यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों को विशेष इलाकों में वन- उत्पादों के व्यापार की इजारेदारी सौंप दी ।
  2. स्थानीय लोगों द्वारा शिकार करने और पशुओं को चराने पर बंदिशें लगा दी गईं ।
  3. इस प्रक्रिया में मद्रास प्रेसीडेंसी के कोरावा , कराचा व येरुकुला जैसे अनेक चरवाहे और घुमंतू समुदाय अपनी जीविका से हाथ धो बैठे ।
  4. इनमें से कुछ को ‘ अपराधी कबीले ‘ कहा जाने लगा और ये सरकार की निगरानी में फ़ैक्ट्रियों , खदानों व बागानों में काम करने को मजबूर हो गए ।

काम के नए अवसरों

  1. असम के चाय बागानों में काम करने के लिए झारखंड के संथाल और उराँव व छत्तीसगढ़ के गोंड जैसे आदिवासी मर्द व औरतों , दोनों की भर्ती की गयी ।
  2. उनकी मज़दूरी बहुत कम थी और कार्यपरिस्थितियाँ उतनी ही खराब ।
  3. उन्हें उनके गाँवों से उठा कर भर्ती तो कर लिया गया था लेकिन उनकी वापसी आसान नहीं थी ।

वन विद्रोह

  1. हिंदुस्तान और दुनिया भर में वन्य समुदायों ने अपने ऊपर थोपे गए बदलावों के खिलाफ़ बगावत की ।
  2. संथाल परगना में सीधू और कानू , छोटा नागपुर में बिरसा मुंडा और आंध्र प्रदेश में अल्लूरी सीताराम राजू को लोकगीतों और कथाओं में अंग्रेज़ों के खिलाफ़ उभरे आंदोलनों के नायक के रूप में आज भी याद किया जाता है ।

बस्तर के लोग

  • बस्तर छत्तीसगढ़ के सबसे दक्षिणी छोर पर आंध्र प्रदेश , उड़ीसा व महाराष्ट्र की सीमाओं से लगा हुआ क्षेत्र है ।
  • बस्तर का केंद्रीय भाग पठारी है ।
  • बस्तर में मरिया और मुरिया गोंड , धुरवा , भतरा , हलबा आदि अनेक आदिवासी समुदाय रहते हैं ।
  • बस्तर के लोग मानते हैं कि हरेक गाँव को उसकी ज़मीन ‘ धरती माँ ‘ से मिली है और बदले में वे प्रत्येक खेतिहर त्योहार पर धरती को चढ़ावा चढ़ाते हैं ।
  • धरती के अलावा वे नदी , जंगल व पहाड़ों की आत्मा को भी उतना ही मानते हैं ।
  • चूँकि हर गाँव को अपनी चौहद्दी पता होती है इसलिए ये लोग इन सीमाओं के भीतर समस्त प्राकृतिक संपदाओं की देखभाल करते हैं ।
  • यदि एक गाँव के लोग दूसरे गाँव के जंगल से थोड़ी लकड़ी लेना चाहते हैं तो इसके बदले में वे एक छोटा शुल्क अदा करते हैं जिसे देवसारी , दांड़ या मान कहा जाता है ।
  • कुछ गाँव अपने जंगलों की हिफ़ाज़त के लिए चौकीदार रखते हैं जिन्हें वेतन के रूप में हर घर से थोड़ा – थोड़ा अनाज दिया जाता है ।

लोगों के भय

  • औपनिवेशिक सरकार ने 1905 में जब जंगल के दो – तिहाई हिस्से को आरक्षित करने , घुमंतू खेती को रोकने और शिकार व वन्य उत्पादों के संग्रह पर पाबंदी लगाने जैसे प्रस्ताव रखे तो बस्तर के लोग बहुत परेशान हो गए ।
  • कुछ गाँवों को आरक्षित वनों में इस शर्त पर रहने दिया गया कि वे वन विभाग के लिए पेड़ों की कटाई और ढुलाई का काम मुफ्त करेंगे और जंगल को आग से बचाए रखेंगे । बाद में इन्हीं गाँवों को ‘ वन ग्राम ‘ कहा जाने लगा ।
  • गाँव वाले ज़मीन के बढ़े हुए लगान तथा औपनिवेशिक अफ़सरों के हाथों बेगार और चीज़ों की निरंतर माँग से त्रस्त थे ।
  • भयानक अकाल का दौर आया : पहले 1899-1900 में और फिर 1907-1908 में । वन आरक्षण ने चिंगारी का काम किया ।
  • काँगेर वनों के धुरवा समुदाय के लोग इस मुहिम में सबसे आगे थे क्योंकि आरक्षण सबसे पहले यहीं लागू हुआ था ।
  • कोई एक व्यक्ति इनका नेता नहीं था लेकिन बहुत सारे लोग नेथानार गाँव के गुंडा धूर को इस आंदोलन की एक अहम शख्सियत मानते हैं ।
  • 1910 में आम की टहनियाँ , मिट्टी के ढेले , मिर्च और तीर गाँव – गाँव चक्कर काटने लगे ।
  • हरेक गाँव ने इस बगावत के खर्चे में कुछ न कुछ मदद दी ।
  • बाज़ार लूटे गए , अफ़सरों और व्यापारियों के घर , स्कूल और पुलिस थानों को लूटा व जलाया गया । तथा अनाज का पुनर्वितरण किया गया ।
  • इन घटनाओं के एक चश्मदीद गवाह , मिशनरी विलियम वार्ड ने लिखा : ‘ पुलिसवालों , व्यापारियों , जंगल के अर्दलियों , स्कूल मास्टरों और प्रवासियों का हुजूम चारों तरफ़ से जगदलपुर में चला आ रहा था ।

विद्रोह के खिलाफ ब्रिटिश कार्रवाई

  • ‘ अंग्रेज़ों ने बगावत को कुचल देने के लिए सैनिक भेजे ।
  • आदिवासी नेताओं ने बातचीत करनी चाही लेकिन अंग्रेज़ फ़ौज ने उनके तंबुओं को घेर कर उन पर गोलियाँ चला दीं ।
  • अंग्रेजों को फिर से नियंत्रण पाने में तीन महीने ( फ़रवरी – मई ) लग गए ।
  • फिर भी वे गुंडा धूर को कभी नहीं पकड़ सके ।
  • विद्रोहियों की सबसे बड़ी जीत यह रही कि आरक्षण का काम कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया और आरक्षित क्षेत्र को भी 1910 से पहले की योजना से लगभग आधा कर दिया गया ।

जावा के जंगलों में हुए बदलाव

  1. जावा को आजकल इंडोनेशिया के चावल उत्पादक द्वीप के रूप में जाना जाता है ।
  2. इंडोनेशिया एक डच उपनिवेश था
  3. भारत व इंडोनेशिया के वन कानूनों में कई समानताएँ थीं ।
  4. इंडोनेशिया में जावा ही वह क्षेत्र है जहाँ डचों ने वन प्रबंधन की शुरुआत की थी ।
  5. अंग्रेज़ों की तरह वे भी जहाज़ बनाने के लिए जावा से लकड़ी हासिल करना चाहते थे ।
  6. सन् 1600 में जावा की अनुमानित आबादी 34 लाख थी ।

जावा के लकड़हारे

  1. जावा में कलांग समुदाय के लोग कुशल लकड़हारे और घुमंतू किसान थे ।
  2. 1755 में जब जावा की माताराम रियासत बँटी तो यहाँ के 6,000 कलांग परिवारों को भी दोनों राज्यों में बराबर बराबर बाँट दिया गया ।
  3. डचों ने जब अठारहवीं सदी में वनों पर नियंत्रण स्थापित करना प्रारंभ किया तब उन्होंने भी कोशिश की कि कलांग उनके लिए काम करें ।
  4. 1770 में कलांगों ने एक डच किले पर हमला करके इसका प्रतिरोध किया लेकिन इस विद्रोह को दबा दिया गया ।

डच वैज्ञानिक वानिकी

  1. उन्नीसवीं सदी में डच उपनिवेशकों ने जावा में वन कानून लागू कर ग्रामीणों की जंगल तक पहुँच पर बंदिशें थोप दीं ।
  2. इसके बाद नाव या घर बनाने जैसे खास उद्देश्यों के लिए , सिर्फ़ चुने हुए जंगलों से लकड़ी काटी जा सकती थी और वह भी कड़ी निगरानी में ।
  3. ग्रामीणों को मवेशी चराने , बिना परमिट लकड़ी ढोने या जंगल से गुज़रने वाली सड़क पर घोड़ा गाड़ी अथवा जानवरों पर चढ़ कर आने – जाने के लिए दंडित किया जाने लगा ।
  4. 1882 में अकेले जावा से ही 2,80,000 स्लीपरों का निर्यात किया गया ।
  5. डचों ने पहले तो जंगलों में खेती की ज़मीनों पर लगान लगा दिया और बाद में कुछ गाँवों को इस शर्त पर इससे मुक्त कर दिया कि वे सामूहिक रूप से पेड़ काटने और लकड़ी ढोने के लिए भैंसें उपलब्ध कराने का काम मुफ्त में किया करेंगे ।
  6. इस व्यवस्था को ब्लैन्डाँगडिएन्स्टेन के नाम से जाना गया ।

युद्ध और वन विनाश

  1. पहले और दूसरे विश्वयुद्ध का जंगलों पर गहरा असर पड़ा ।
  2. भारत में तमाम चालू कार्ययोजनाओं को स्थगित करके वन विभाग ने अंग्रेजों की जंगी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बेतहाशा पेड़ काटे ।
  3. जावा पर जापानियों के कब्ज़े से ठीक पहले डचों ने ‘ भस्म कर – भागो नीति ‘ ( Scorched Earth Policy ) अपनायी जिसके तहत आरा मशीनों और सागौन के विशाल लट्ठों के ढेर जला दिए गए जिससे वे जापानियों के हाथ न लग पाएँ । इ
  4. सके बाद जापानियों ने वनवासियों को जंगल काटने के लिए बाध्य करके अपने युद्ध उद्योग के लिए जंगलों का निर्मम दोहन किया ।
  5. बहुत सारे गाँव वालों ने इस अवसर का लाभ उठा कर जंगल में अपनी खेती का विस्तार किया ।
  6. जंग के बाद इंडोनेशियाई वन सेवा के लिए इन ज़मीनों को वापस हासिल कर पाना कठिन था ।

वानिकी में नए बदलाव

  1. अस्सी के दशक से एशिया और अफ्रीका की सरकारों को यह समझ में आने लगा कि वैज्ञानिक वानिकी और वन समुदायों को जंगलों से बाहर रखने की नीतियों के चलते बार – बार टकराव पैदा होते हैं ।
  2. परिणामस्वरूप , वनों से इमारती लकड़ी हासिल करने के बजाय जंगलों का संरक्षण ज्यादा महत्त्वपूर्ण लक्ष्य बन गया है ।
  3. सरकार ने यह भी मान लिया है कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए वन प्रदेशों में रहने वालों की मदद लेनी होगी ।
  4. मिज़ोरम से लेकर केरल तक हिंदुस्तान में हर कहीं घने जंगल सिर्फ इसलिए बच पाए कि ग्रामीणों ने सरना , देवराकुडु , कान , राई इत्यादि नामों से पवित्र बगीचा समझ कर इनकी रक्षा की ।

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