Hindi Kshitij Chapter 14 Summary चंद्र गहना से लौटती बेर
NCERT Class 9 Hindi Kshitij Chapter 14 Summary चंद्र गहना से लौटती बेर, (Hindi) exam are Students are taught thru NCERT books in some of the state board and CBSE Schools. As the chapter involves an end, there is an exercise provided to assist students to prepare for evaluation. Students need to clear up those exercises very well because the questions inside the very last asked from those.
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NCERT Class 9 Hindi Kshitij Chapter 14 Summary चंद्र गहना से लौटती बेर
कवि परिचय
जीवन परिचय – प्रगतिवादी कवि एवं लेखक केदारनाथ अग्रवाल का जन्म 1911 में उत्तर प्रदेश के बाँदा जनपद के कमासिन गाँव में हुआ था । इलाहाबाद में कॉलेज की शिक्षा पूरी करने के बाद इन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से एल.एल.बी. कर वकालत शुरू कर दी । बचपन से ही इनकी रुचि काव्य – रचना में थी । बाद में प्रगतिवादी आंदोलन से जुड़ गए । ‘ हरिऔध ‘ और ‘ रसाल ‘ जैसे साहित्यकारों से उनका संपर्क रहा । उनका देहांत सन 2000 में हुआ ।
रचना परिचय – केदारनाथ अग्रवाल की प्रमुख रचनाएँ हैं – ‘ नींद के बादल ‘ , ‘ युग की गंगा ‘ , ‘ लोक और अलोक ‘ , नहीं रंग बोलते हैं ‘ , ‘ आग का आईना ‘ , ‘ कहे केदार खरी – खरी ‘ , ‘ पंख और पतवार ‘ , ‘ हे मेरी तुम ‘ , ‘ मार प्यार की थापें ‘ आदि ।
साहित्यिक विशेषताएँ – केदारनाथ अग्रवाल प्रगतिवादी विचारधारा के प्रमुख कवि माने जाते हैं । उनकी कविताओं में जन सामान्य का संघर्ष और प्रकृति सौंदर्य का विशेष चित्रण हुआ है । उनके काव्य में बुंदेलखंडी समाज का दैनंदिन जीवन अपने खुलेपन और उमंग के साथ अभिलक्षित हुआ ।
भाषा – शैली – कवि के काव्य की भाषा आम आदमी के जीवन की भाषा है । इसमें शब्दों का सौंदर्य , ध्वनियों की धारा और स्थापत्य की कला है । वे ग्रामीण जीवन से जुड़े बिंबों को आत्मीयता के साथ प्रस्तुत करते हैं । वे हृदय की बात कलात्मक और मनोरम शब्दों में व्यक्त करने में दक्ष हैं । इनकी रचनाएँ मुक्त छंद शैली में है ।
कविता परिचय
‘ चंद्र गहना से लौटती बेर ‘ नामक इस कविता में कवि का प्रकृति के प्रति गहन अनुराग व्यक्त हुआ है । चंद्र गहना नामक स्थान से लौटते समय कवि का किसान मन खेतों के सहज सौंदर्य पर आकर्षित हो उठता है । कवि को साधारण सी चीज़ों में भी सौंदर्य के दर्शन होते हैं । वह पोखर की हलचल , दूर तक फैली चित्रकूट की पहाड़ियाँ , उन पर उगे वृक्षों पर बैठे पक्षी और उनके कलरव को शहरी विकास की तीव्रगति से बचाए रखना चाहता है । प्रकृति की गोद में वह शांति की अनुभूति करता है ।
भावार्थ
1. देख आया चंद्र गहना ।
देखता हूँ दृश्य अब मैं
मेड़ पर इस खेत की बैठा अकेला ।
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना ,
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का ,
सज कर खड़ा है ।
शब्दार्थ –
मेड़ – खेतों के बीच आने – जाने का रास्ता
बीता – बालिस्त , लगभग 22.5 सेंटीमीटर ( अंगूठे के सिरे से कनिष्ठा तक की लंबाई )
ठिगना – छोटे कद वाला
मुरैठा- साफा , पगड़ी
शीश – सिर
भावार्थ – कवि चंद्र गहना से लौटते समय प्राकृतिक सौंदर्य निहारने के लिए खेत की मेड़ पर बैठ जाता है । वह आसपास की फसलों का सौंदर्य देखने लगता है । वह देखता है कि एक बीते ( बिते ) की लंबाई का ठिगना – सा चने का पौधा सज – धजकर खड़ा है । उसने अपने शीश पर साफा बाँध रखा है । मानो वह शादी में जाने को तैयार है , क्योंकि वह सिर पर गुलाबी फूल सजाए खड़ा है ।
2. पास ही मिल कर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली , कमर की है लचीली ,
नील फूले फूल को सिर पर चढ़ा कर
कह रही है , जो छुए यह
दूँ हृदय का दान उसको ।
शब्दार्थ –
अलसी – एक तिलहनी पौधा , तीसी
हठीली – ज़िद्दी
लचीली – लचकदार
नील – नीले
भावार्थ – कवि देखता है कि चने के पास ही अलसी उग आई है । लगता है कि वह चने के पास हठ करके उगी है । पतला शरीर , लचकदार कमर वाली अलसी सिर पर नीले फूल धारण किए हुए है । ऐसी सुंदरी अलसी कहती है कि जो उसे छुएगा उसे वह अपना हृदय दान दे देगी । अर्थात कवि उसको प्रेमातुर नायिका के रूप में प्रस्तुत कर रहा है ।
3. और सरसों की न पूछो –
हो गई सबसे सयानी ,
हाथ पीले कर लिए हैं
ब्याह-मंडप में पधारी
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे ।
देखता हूँ मैं : स्वयंवर हो रहा है ,
प्रकृति का अनुराग- अंचल हिल रहा है
इस विजन में ,
दूर व्यापारिक नगर से
प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है ।
शब्दार्थ –
सयानी – बड़ी , युवा , चतुर
हाथ पीले कर – विवाह के लिए हल्दी लगाकर
पधारी – आई हुई
फाग – फागुन माह में गाया जाने वाला गीत
अनुराग – प्रेम
विजन – सुनसान
भावार्थ – सरसों के सौंदर्य के बारे में कवि कहता है , उसकी बात पूछो ही मत । वह सबसे सयानी युवा हो गई है । ब्याह के मंडप में जाने को आतुर उसने हाथों को पीला कर रखा है । ऐसे में लगता है कि फाग गाता हुआ फागुन भी आ पहुँचा है । यह सब देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी का स्वयंवर हो रहा है । इस शांतिपूर्ण क्षेत्र में प्रकृति का प्रेमपूर्ण आँचल हिल रहा है । सभी प्रसन्नचित्त दिखाई दे रहे हैं । कवि को लगता है शहरों की अपेक्षा गाँव की ज़मीन प्यार के मामले में अधिक उपजाऊ है । यहाँ मनुष्य तो मनुष्य , पेड़ – पौधे भी प्यार करते हैं । यहाँ प्रकृति का एक – एक अंग प्यार से सराबोर दिख रहा ।
4. और पैरों के तले है एक पोखर ,
उठ रहीं इसमें लहरियाँ ,
नील तल में जो उगी है घास भूरी
ले रही वह भी लहरियाँ ।
एक चाँदी का बड़ा – सा गोल खंभा
आँख को है चकमकाता ।
हैं कई पत्थर किनारे
पी रहे चुपचाप पानी ,
प्यास जाने कब बुझेगी !
शब्दार्थ –
पोखर- तालाब
लहरियाँ – लहरें
तल – पेंदा
चकमकाना – चुँधियाना
भावार्थ – कवि जिस स्थान पर बैठा है , वहीं पास में एक तालाब है , जिसमें हवा के चलने से लहरें उठ रही हैं । तालाब की नीली तली में भूरी घासें उग आई हैं । लहरों के साथ वे भी लहरा रही हैं । उस पानी में सूर्य की परछाईं आँखों को चुँधियाँ रही है । वह चाँदी के बड़े गोल खंभे – सा दिख रही है । तालाब के किनारे कई पत्थर चुपचाप पानी पीते हुए दिख रहे हैं । कवि सोचता है कि , इन पत्थरों की प्यास पता नहीं कब बुझेगी , क्योंकि ये लंबे समय से पानी पी रहे हैं ।
5. चुप खड़ा बगुला डुबाए टाँग जल में ,
देखते ही मीन चंचल
ध्यान – निद्रा त्यागता है ,
चट दबा कर चोंच में
नीचे गले के डालता है!
एक काले माथ वाली चतुर चिड़िया
श्वेत पंखों के झपाटे मार फौरन
टूट पड़ती है भरे जल के हृदय पर ,
एक उजली चटुल मछली
चोंच पीली में दबा कर
दूर उड़ती है गगन में !
शब्दार्थ –
मीन – मछली
ध्यान-निद्रा – ध्यान रूपी नींद
त्यागना – छोड़ना
चट – जल्दी से
माथ – माथा , मस्तक
श्वेत – उज्ज्वल
जल के हृदय पर – पानी की सतह पर
उजली – चमकती हुई , सफ़ेद
चटुल – चंचल
गगन – आसमान
भावार्थ – तालाब में एक किनारे बगुला ध्यान की नींद में मग्न है । इसका ध्यान दिखावटी है क्योंकि वह चंचल मछलियों को देखते ही अपना ध्यान त्याग देता है । उस मछली को वह चोंच में पकड़कर गले के नीचे उतार लेता है । तभी कवि देखता है कि काले माथे वाली एक चतुर चिड़िया , जिसके पंख सफ़ेद हैं , पानी की सतह पर झपट्टा मारती है और अपनी पीली चोंच में एक चमकदार चंचल मछली दबाकर आकाश में उड़ जाती है ।
6. औ ‘ यहीं से –
भूमि ऊँची है जहाँ से
रेल की पटरी गई है
ट्रेन की टाइम नहीं है ।
मैं यहाँ स्वच्छंद हूँ ,
जाना नहीं है ।
शब्दार्थ –
स्वच्छंद – आज़ाद , मुक्त
भावार्थ – कवि जहाँ बैठा यह प्राकृतिक दृश्य देख रहा है , वहाँ से कुछ दूरी पर जमीन ऊँची है । वहीं सामने से रेल की पटरी गई है । कवि जानता है कि यह ट्रेन ( रेलगाड़ी ) के आने – जाने का समय नहीं है । वैसे भी कवि को किसी काम के लिए कहीं आना जाना नहीं है । वह इस समय स्वतंत्र है । अर्थात उसे कोई विशेष काम नहीं है ।
7. चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी
कम ऊँची – ऊँची पहाड़ियाँ
दूर दिशाओं तक फैली हैं ।
बाँझ भूमि पर
इधर – उधर रींवा के पेड़
काँटेदार कुरूप खड़े हैं ।
शब्दार्थ –
अनगढ़ – ऊबड़ – खाबड़
बाँझ – बंध्या , अनुर्वर
रीवा – एक कँटीला पेड़
कुरूप – भद्दे
भावार्थ – कवि देखता है कि उसके सामने चित्रकूट की टेढ़ी – मेढ़ी , ऊबड़ – खाबड़ , कम ऊँचाई वाली पहाड़ियाँ दूर – दूर तक फैली हैं । इन पहाड़ियों की भूमि अनुर्वर है । वहाँ रींवा के काँटेदार , कुरूप पेड़ खड़े हैं , इन पेड़ों में कोई आकर्षण नहीं है ।
8. सुन पड़ता है
मीठा – मीठा रस टपकाता
सुग्गे का स्वर
टें टें टें टें ;
सुन पड़ता है
वनस्थली का हृदय चीरता ,
उठता – गिरता ,
सारस का स्वर
टिरटों टिरटों ;
मन होता है
उड़ जाऊँ मैं
पर फैलाए सारस के संग
जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है
हरे खेत में ,
सच्ची प्रेम कहानी सुन लूँ
चुप्पे – चुप्पे ।
शब्दार्थ –
सुग्गा – तोता
वनस्थली – वन प्रांत , जंगल का क्षेत्र
हृदय चीरता – दूर तक आवाज़ गुँजाता
जुगुल – युगल जोड़ा
चुप्पे – चुप्पे – चुपचाप , छिपकर
भावार्थ – कवि को तोते की टें – टें आवाज़ सुनाई देती है । तोते की यह आवाज़ उसके मन को बहुत भा रही है । यह आवाज़ उसे कर्णप्रिय लग रही है । उसे दूसरी ओर से सारस की टिरटों – टिरटों की आवाज़ सुनाई देती है । यह आवाज़ कहीं दूर से वन प्रांत को चीरती आ रही है । सारस का यह स्वर कभी तेज़ होता है तो कभी मंद हो जाता है । कवि उस आवाज़ को सुनकर प्रेमातुर हो जाता है । उसका मन करता है कि वह सारस के साथ उड़कर वहाँ पहुँच जाए , जहाँ हरे – भरे खेतों के बीच यह युगल जोड़ी रहती है और परस्पर प्रेम की बातें कर रही है । कवि चुपचाप तथा छिपकर उनकी प्रेम कहानी को सुनना चाहता है ।