NCERT Notes For Class 11 History Chapter 9 In Hindi औद्योगिक क्रांति

Class 11 History Chapter 9 In Hindi औद्योगिक क्रांति

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NCERT Notes For Class 11 History Chapter 9 In Hindi औद्योगिक क्रांति

 

औद्योगिक क्रांति का अर्थ.

उद्योगों में एक बड़ा परिवर्तन जिसके द्वारा घरों में उत्पादित वस्तुओं को मशीनों की सहायता से कारखानों में उत्पादित वस्तुओं द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।

स्रोत

  • अर्नोल्ड टॉयनबी ( Arnold Toynbee ) का काम : इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति पर व्याख्यान लोकप्रिय अभिभाषण , टिप्पणियाँ और अन्य अंश
  • परवर्ती इतिहासकार टी.एस.एश्टन ( T.S. Ashton ) , पॉल मंतू ( Paul Mantoux ) और एरिक हॉब्सवाम ( Eric Hobsbawm ) के काम

प्रथम औद्योगिक क्रांति

  • ब्रिटेन में 1780 के दशक और 1850 के दशक के बीच उद्योग और अर्थव्यवस्था का जो रूपांतरण हुआ उसे प्रथम औद्योगिक क्रांति के नाम से पुकारा जाता है ।
  • ब्रिटेन में औद्योगिक विकास का यह चरण नयाँ मशीनों और तकनीकियों से गहराई से जुड़ा है ।
  • इस क्रांति के ब्रिटेन में दूरगामी प्रभाव हुए ।
  • आगे चलकर औद्योगीकरण की वजह से कुछ लोग तो समृद्ध हो गए , पर इसके प्रारंभिक दौर को लाखों लोगों के काम करने की खराब एवं बदतर रहन – सहन की परिस्थितयों से जोड़ा जाता है । इनमें स्त्रियाँ और बच्चे भी शामिल थे

औद्योगिक क्रांति शब्द

  • औद्योगिक क्रांति शब्द का प्रयोग यूरोपीय विद्वानों जैसे फ्रांस में जॉर्निस मिशले ( Georges Michelet ) और जर्मनी में फ्रॉइड्रिंक एंजेल्स ( Friedrich Engels ) द्वारा किया गया ।
  • अंग्रेजी में इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम दार्शनिक एवं अर्थशास्त्री ऑरनॉल्ड टॉयनबी ( Arnold Toynbee ) द्वारा उन परिवर्तनों का वर्णन करने के लिए किया गया जो ब्रिटेन के औद्योगिक विकास में 1760 और 1820 के बीच हुए थे ।

औद्योगिक क्रांति को जन्म देने वाले कारक

  • ब्रिटेन पहला देश था जिसने सर्वप्रथम आधुनिक औद्योगीकरण का अनुभव किया था ।
  • यह सत्रहवीं शताब्दी से राजनीतिक दृष्टि से सुदृढ़ एवं संतुलित रहा था और इसके तीनों हिस्सों इंग्लैंड , वेल्स और स्कॉटलैंड पर एक ही राजतंत्र यानी सम्राट का एकछत्र शासन रहा था ।
  • संपूर्ण राज्य में एक ही कानून व्यवस्था , एक ही सिक्का (मुद्रा प्रणाली) और एक ही बाजार व्यवस्था थी । यानी वे अपने इलाके से होकर गुजरने वाले माल पर कोई कर नहीं लगा सकते थे
  • सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक आते आते , मुद्रा का प्रयोग विनिमय यानी आदान – प्रदान के माध्यम के रूप में व्यापक रूप से होने लगा था ।
  • इससे लोगों को अपनी आमदनी से खर्च करने के लिए अधिक विकल्प प्राप्त हो गए और वस्तुओं की बिक्री के लिए बाज़ार का विस्तार हो गया ।
  • अठारहवीं शताब्दी में इंग्लैंड एक बड़े आर्थिक परिवर्तन के दौर से गुजरा था , जिसे बाद में ‘ कृषि क्रांति ‘ कहा गया है ।
  • यह एक ऐसी प्रक्रिया थी जिसके द्वारा बड़े जमींदारों ने संपत्तियों के आसपास छोटे – छोटे खेत ( फार्म ) खरीद लिए और गाँव की सार्वजनिक अपनी जमीनों को घेर लिया
  • इस प्रकार उन्होंने अपनी बड़ी – बड़ी भू – संपदाएँ बना लीं जिससे खाद्य उत्पादन की हुई ।
  • इससे भूमिहीन किसानों और गाँव की सार्वजनिक जमीनों पर अपने पशु चराने वाले चरवाहों एवं पशुपालकों को कहीं और काम – धंधा तलाशने के लिए मजबूर होना पड़ा । उनमें से अधिकांश लोग आसपास के शहरों में चले गए ।

औद्योगिक क्रांति के कारण

  • राजनीतिक स्थिरता
  • राजशाही के तहत एकीकृत
  • आम कानून
  • एकल मुद्रा
  • माल पर कर
  • मजदूरी और वेतन
  • बैंक ऑफ़ इंग्लैंड की स्थापना 1964 में हुई
  • कॉलोनी के रूप में भारत
  • भाप इंजन का आविष्कार
  • कृषि क्रांति
  • बाजार
  • मशीनों का आविष्कार
  • रेलवे और नहरों का परिचय
  • कोयला और लोहे की प्रचुरता
  • पूंजी का निवेश
  • मुद्रा का विनिमय के माध्यम के रूप में उपयोग
  • श्रम आपूर्ति
  • लंदन का वैश्विक महत्व

 

शहर , व्यापार और वित्त

लंदन का उदय

  • अठारहवीं शताब्दी से , यूरोप के बहुत से शहर क्षेत्रफल और आबादी दोनों ही दृष्टियों से बढ़ने लगे थे ।
  • यूरोप के जिन उन्नीस शहरों की आबादी सन् 1750 से 1800 के बीच दोगुनी हो गई थी , उनमें से ग्यारह ब्रिटेन में थे ।
  • इन ग्यारह शहरों में लंदन सबसे बड़ा था जो देश के बाजारों का केंद्र था
  • लंदन ने संपूर्ण विश्व में भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया था ।
  • अठारहवीं शताब्दी तक आते – आते भूमंडलीय व्यापार का केंद्र , इटली तथा फ्रांस के भूमध्यसागरीय पत्तनों ( बंदरगाह ) से हटकर , हॉलैंड और ब्रिटेन के अटलांटिक पत्तनों पर आ गया था ।
  • लंदन ने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए ऋण प्राप्ति के प्रधान स्रोत के रूप में ऐम्सटर्डम का स्थान ले लिया ।
  • लंदन : इंग्लैंड , अफ्रीका और वेस्टइंडीज के बीच स्थापित त्रिकोणीय व्यापार का केंद्र भी बन गया ।

परिवहन प्रणाली का विकास

  • इंग्लैंड में विभिन्न बाजारों के बीच माल की आवाजाही प्रमुख रूप से नदी मार्ग से और समुद्री तट की सुरक्षित खाड़ियों में पानी के जहाजों से होती थी ।
  • रेलमार्ग का प्रसार होने तक , जलमार्गों द्वारा परिवहन स्थलमार्गों की तुलना में सस्ता पड़ता था
  • सन् 1724 से इंग्लैंड के पास नदियों के ज़रिये लगभग 1,160 मील लंबा जलमार्ग था जिसमें नौकाएँ चल सकती थीं और पहाड़ी इलाकों को छोड़कर , देश के अधिकांश स्थान नदी से अधिक से अधिक 15 मील की दूरी पर थे ।
  • नदियों ने तटीय जहाजों की आसान आवाजाही प्रदान की क्योंकि सभी नदियाँ समुद्र में बहती हैं।

इंग्लैंड में वित्तीय प्रणाली का विकास

  • देश की वित्तीय प्रणाली का केंद्र बैंक ऑफ इंग्लैंड ( 1694 में स्थापित ) था ।
  • 1784 तक , इंग्लैंड में कुल मिलाकर एक सौ से अधिक प्रांतीय बैंक थे । 1820 के दशक तक , प्राँतों में 600 से अधिक बैंक थे
  • अकेले लंदन में ही 100 से अधिक बैंक थे ।

 

कोयला और लोहा

  • इंग्लैंड में मशीनीकरण में काम आने वाली मुख्य सामग्रियाँ , कोयला और लौह – अयस्क , बहुतायत से उपलब्ध थीं ।
  • वहाँ उद्योग में काम आने वाले अन्य खनिज ; जैसे- सीसा , ताँबा और राँगा ( टिन ) भी खूब मिलते थे ।
  • किंतु , अठारहवीं शताब्दी तक , वहाँ इस्तेमाल योग्य लोहे की कमी थी ।
  • लोहा प्रगलन * ( smelting ) की प्रक्रिया के द्वारा लौह खनिज में से शुद्ध तरल धातु के रूप में निकाला जाता है ।
  • सदियों तक इस प्रगलन प्रक्रिया के लिए काठ कोयले ( चारकोल ) का प्रयोग किया जाता था । लेकिन इस कार्य की कई समस्याएँ थीं : काठकोयला लंबी दूरी तक ले जाने की प्रक्रिया में टूट जाया करता था ; इसकी अशुद्धताओं के कारण घटिया किस्म के लोहे का ही उत्पादन होता था ; यह पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध भी नहीं था क्योंकि लकड़ी के लिए जंगल काट लिए गए थे ; और यह उच्च तापमान पैदा नहीं कर सकता था ।

ब्लास्ट फर्नेस का आविष्कार

  • इस समस्या का कई वर्षों से हल ढूँढ़ा जा रहा था
  • अंततोगत्वा श्रोपशायर के एक डर्बी परिवार ने जो स्वयं लौह- उस्ताद थे , इस समस्या का हल निकाल लिया ।
  • आधी शताब्दी के दौरान , इस परिवार की तीन पीढ़ियों ने ( दादा , पिता और पुत्र ) धातुकर्म उद्योग में क्रांति ला दी ।
  • इस क्रांति का प्रारंभ 1709 में प्रथम अब्राहम डर्बी ( 1677-1717 ) द्वारा किए गए आविष्कार से हुआ ।
  • यह धमनभट्टी ( Blast furance ) का आविष्कार था जिसमें सर्वप्रथम ‘ कोक ‘ का इस्तेमाल किया गया
  • कोक में उच्चताप उत्पन्न करने की शक्ति थी और वह ( पत्थर के ) कोयले से , गंध क तथा अपद्रव्य निकालकर तैयार किया जाता था ।
  • इस आविष्कार का फल यह हुआ कि तब से भट्ठियों को काठकोयले पर निर्भर नहीं रहना पड़ा ।
  • द्वितीय डर्बी ( 1711-68 ) ने ढलवाँ लोहे ( pig – iron ) से पिटवाँ लोहे ( wrought – iron ) का विकास किया जो कम भंगुर था ।
  • हेनरी कोर्ट ( 1740-1823 ) ने आलोड़न भट्ठी ( puddling furance ) , ( जिसमें पिघले लोहे में से अशुद्धि को दूर किया जा सकता था ) और बेलन मिल ( रोलिंग मिल ) का आविष्कार किया
  • अब लोहे से अनेकानेक उत्पाद बनाना संभव हो गया ।
  • 1770 के दशक में , जोन विल्किनसन ( 1728-1808 ) ने सर्वप्रथम लोहे की कुर्सियाँ आसव तथा शराब की भट्ठियों के लिए टंकियाँ ( vats ) और लोहे की सभी आकारों की नलियाँ ( पाइपें ) बनाई ।
  • 1779 में तृतीय डर्बी ( 1750-91 ) ने विश्व में पहला लोहे का पुल कोलब्रुकडेल बनाया ।

ब्लास्ट फर्नेस के उपयोग के परिणाम

  • ब्रिटेन के लौह उद्योग ने 1800 से 1830 के दौरान अपने उत्पादन को चौगुना बढ़ा लिया और उसका उत्पादन पूरे यूरोप में सबसे सस्ता था ।
  • 1820 में , एक टन ढलवाँ लोहा बनाने के लिए 8 टन कोयले की ज़रूरत होती थी , किंतु 1850 तक आते – आते यह मात्रा घट गई और केवल 2 टन हो गई
  • 1848 तक ब्रिटेन द्वारा पिघलाए जाने वाले लोहे की मात्रा बाकी सारी दुनिया से अधिक थी ।

 

कपास की कताई और बुनाई

कपास उद्योग

  • ब्रिटिश हमेशा ऊन और सन ( लिनन बनाने के लिए ) से कपड़ा बुना करते थे ।
  • सत्रहवीं शताब्दी से इंग्लैंड भारत से बड़ी लागत पर सूती कपड़े की गांठों का आयात करता रहा
  • भारत के हिस्सों पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राजनीतिक नियंत्रण स्थापित हो गया , कपड़े के साथ – साथ कच्चे कपास ( रूई ) का आयात करना भी शुरू कर दिया जिसकी इंग्लैंड में आने पर कताई की जाती थी और उससे कपड़ा बुना जाता था ।
  • अठारहवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में कताई का काम इतनी धीमी गति और मेहनत से किया जाता था कि एक बुनकर को व्यस्त रखने के लिए आवश्यक धागा कातने के लिए 10 कातने वालों , अधिकतर स्त्रियाँ , की जरूरत पड़ती थी ।
  • इस कार्य को और अधिक कुशलतापूर्वक करने के लिए उत्पादन का काम धीरे – धीरे , कताईगरों और बुनकरों के घरों से हटकर फैक्ट्रियों यानी कारखानों में चला गया ।
  • 1780 के दशक से , कपास उद्योग कई रूपों में ब्रिटिश औद्योगीकरण का प्रतीक बन गया ।
  • कच्चे माल के रूप में आवश्यक कपास संपूर्ण रूप से आयात करना पड़ता था और जब उससे कपड़ा तैयार हो जाता तो उसका अधिकांश भाग बाहर निर्यात किया जाता था ।

आविष्कारक और आविष्कार

  1. उड़न तुरी करघे ( Flying shuttle loom ) का आविष्कार जॉन के ( 1704-64 ) 1733 में बनाई गई
  2. जेम्स हरग्रीव्ज़ ( 1720-78 ) द्वारा 1765 में कताई मशीन ( Spinning jenny ) बनाई गई
  3. रिचर्ड आर्कराइट ( 1732-92 ) द्वारा 1769 में वॉटर फ्रेम ( Water frame ) बनाई गई
  4. ‘ म्यूल ‘ एक ऐसी मशीन का उपनाम था जो 1779 में सैम्यूअल क्रॉम्टन ( 1753-1827 ) द्वारा बनाई गई
  5. एडमंड कार्टराइट ( 1743-1823 ) द्वारा 1787 में पॉवरलूम यानी शक्तिचालित करघे के आविष्कार के साथ समाप्त हो गया ।

 

भाप की शक्ति

  • जब यह पता चल गया कि भाप अत्यधिक शक्ति उत्पन्न कर सकता है तो यह बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण के लिए निर्णायक सिद्ध हुआ ।
  • जल भी सदियों से ऊर्जा का प्रमुख स्रोत बना रहा था लेकिन इसका उपयोग कुछ खास इलाकों मौसमों और चल प्रवाह की गति के अनुसार सीमित रूप में ही किया जाता था ।
  • पता चल गया कि भाप की शक्ति उच्च तापमानों पर दबाव पैदा करती जिससे अनेक प्रकार की मशीनें चलाई जा सकती थीं ।
  • भाप की शक्ति ऊर्जा का अकेला ऐसा स्रोत था जो मशीनरी बनाने के लिए भी भरोसेमंद और कम खर्चीला था ।
  • भाप शक्ति का आविष्कार और इसके सुधार ने औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया
  • भाप की शक्ति का इस्तेमाल सर्वप्रथम खनन उद्योगों में किया गया ।

भाप शक्ति के मुख्य आविष्कारक

  • थॉमस सेवरी ( 1650-1715 ) ने खानों से पानी बाहर निकालने के लिए 1698 में माइनर्स फ्रेंड ( खनक – मित्र ) नामक एक भाप के इंजन का मॉडल बनाया ।
  • भाप का एक और इजन 1712 में थॉमस न्यूकॉमेन ( 1663-1729 ) द्वारा बनाया गया । इसमें सबसे बड़ी कमी यह थी कि संघनन बेलन ( कंडेन्सिंग सिलिंडर ) के लगातार ठंडा होते रहने से इसकी ऊर्जा खत्म होती रहती थी ।
  • भाप के इंजन का इस्तेमाल 1769 तक केवल कोयले की खानों में ही होता रहा ,
  • जेम्सवाट ( 1736-1819 ) ने इसका एक और प्रयोग खोज निकाला । वाट ने एक ऐसी मशीन विकसित की जिससे भाप का इंजन केवल एक साधारण पंप की बजाय एक ‘ प्राइम मूवर ‘ यानी प्रमुख चालक ( मूवर ) के रूप में काम देने लगा जिससे कारखानों में शक्तिचालित मशीनों को ऊर्जा मिलने लगी ।
  • एक धनी निर्माता मैथ्यू बॉल्टन ( 1728-1809 ) की सहायता से वॉट ने 1775 में बर्मिंघम में ‘ सोहो फाउंडरी ‘ का निर्माण किया । इस फाउंडरी से वाट के स्टीम इंजन बराबर बढ़ती हुई संख्या में बनकर निकलने लगे ।

 

नहरें और रेलें

नहरों का निर्माण

  • प्रारंभ में नहरें कोयले को शहरों तक ले जाने के लिए बनाई गई ।
  • कोयले को उसके परिमाण और भार के कारण सड़क मार्ग से ले जाने में समय बहुत लगता था और उस पर खर्च भी अधिक आता था
  • इंग्लैंड में पहली नहर ‘ वर्सली कैनाल ‘ 1761 में जेम्स ब्रिडली ( 1716-72 ) द्वारा बनाई गई , इस नहर के बन जाने के बाद कोयले की कीमत घटकर आधी हो गई ।
  • कोयले के परिवहन के लिए नहरों का उपयोग किया जाता था।
  • नहरें आमतौर पर बड़े – बड़े जमींदारों द्वारा अपनी ज़मीनों पर स्थित खानों , खदानों या जंगलों के मूल्य को बढ़ाने के लिए बनाई जाती थीं ।
  • नहरों के आपस में जुड़ जाने से नए – नए शहरों में बाज़ार बन गए ।
  • उदाहरण के लिए , बर्मिघम शहर का विकास केवल इसीलिए तेज़ी से हुआ क्योंकि लंदन ब्रिस्टल चैनल और मरसी तथा हंबर नदियों के साथ जुड़ने वाली नहर प्रणाली के मध्य में स्थित था ।
  • 1788 से 1796, 46 . तक ‘ नहरोन्माद ‘ ( Canal – mania ) के रूप में जानी जाने वाली अवधि में 25 नई नहरों के निर्माण की परियोजनाएं शुरू की गईं।

रेलवे का आविष्कार

  • पहला भाप से चलने वाला रेल का इंजन स्टीफेनसन का रॉकेट 1814 में बना
  • परिवहन का एक ऐसा नया साधन बन गई , जो वर्षभर उपलब्ध रहती थीं , सस्ती और तेज़ भी थीं और माल तथा यात्री दोनों को ढो सकती थीं ।
  • लोहे की पटरी जिसने 1760 के दशक में लकड़ी की पटरी का स्थान ले लिया
  • रेलवे के आविष्कार के साथ औद्योगीकरण की संपूर्ण प्रक्रिया ने दूसरे चरण में प्रवेश कर लिया ।
  • 1801 में रिचर्ड ट्रेविधिक ( 1771-1833 ) ने एक इंजन का निर्माण किया जिसे ‘ पफिंग डेविल ‘ यानी ‘ फुफकारने वाला दानव ‘ , कहते थे । यह इंजन ट्रकों को चारों ओर खींचकर खान ले जाता था
  • 1814 में , एक रेलवे इंजीनियर जॉर्ज स्टीफेनसन ने एक रेल इंजन बनाया जिसे ‘ ब्लचर ‘ ( The Blutcher ) कहा जाता था ।
  • यह इंजन 30 टन भार 4 मील प्रति घंटे की रफ्तार से एक पहाड़ी पर ले जा सकता था ।
  • सर्वप्रथम 1825 में स्टॉकटन और डालिंगटन शहरों के बीच 9 मील लंबा रेलमार्ग 24 किलोमीटर प्रति घंटा ( 15 मील प्रति घंटा ) की रफ्तार से 2 घंटे में रेल द्वारा तय किया गया ।
  • इसके बाद 1830 में लिवरपूल और मैनचेस्टर को आपस में रेलमार्ग से जोड़ दिया गया ।
  • 1833-37 के ‘ छोटे रेलोन्माद ‘ के दौरान 1400 मील लंबी रेल लाइन बनी और 1844-47 के ‘ बड़े रेल उन्माद ‘ के दौरान फिर 9,500 मील लंबी रेल लाइन बनाने की मंजूरी दी गई ।

 

परिवर्तित जीवन

लोगों के जीवन में परिवर्तन

  • इन वर्षों के दौरान , प्रतिभाशाली व्यक्तियों के लिए क्रांतिकारी परिवर्तन लाना संभव हो पाया ।
  • इसी प्रकार ऐसे धनवान लोग भी बहुत थे जिन्होंने जोखिम उठाकर उद्योग – धंधों में इस आशा से पूंजी निवेश किया कि इससे उन्हें मुनाफ़ा होगा और उनके धन में कई गुना वृद्धि हो जाएगी ।
  • अधिकांश मामलों में यह धनराशि यानी पूँजी कई गुना बढ़ी ।
  • धन में , माल , आय , सेवाओं , ज्ञान और उत्पादक कुशलता के रूप में अचानक वृद्धि हुई ।
  • इसका मनुष्यों को दूसरे रूप में भारी खामियाजा भी उठाना पड़ा । इससे परिवार टूट गए । पुराने पते बदल गए और लोगों को नयी जगहों पर रहना पड़ा । शहर विकृत होने लगे और कारखानों में काम करने की परिस्थितियाँ एकदम बिगड़ गई ।
  • इंग्लैंड में 50,000 से अधिक की आबादी वाले नगरों की संख्या 1750 में केवल दो थीं जो बढ़ते – बढ़ते 1850 में 29 हो गई ।
  • आबादी में जिस रफ्तार से बढ़ोतरी हुई उस रफ्तार से रहन-सहन के अन्य साधनों में वृद्धि नहीं हो पाई ।
  • सफ़ाई और स्वच्छ पेय जल की व्यवस्था में भी बढ़ती हुई शहरी आबादी के मुताबिक सुधार नहीं हुआ ।
  • नए बसे लोगों को नगरों में कारखानों के आसपास भीड़भाड़ वाली गंदी बस्तियों में रहना पड़ा
  • जबकि धनवान लोग नगर छोड़कर आसपास के उपनगरों में साफ – सुथरे मकान बनाकर रहने लगे , जहाँ की हवा स्वच्छ थी और पीने का पानी भी साफ एवं सुरक्षित था ।

 

मज़दूर

मजदूरों की हालत

  • 1842 में किए गए एक सर्वेक्षण से यह पता चला कि वेतनभोगी मज़दूरों यानी कामगारों के जीवन की औसत अवधि शहरों में रहने वाले अन्य किसी भी सामाजिक समूह के जीवनकाल से कम थी
  • बर्मिंघम में यह 15 वर्ष मैनचेस्टर में 17 वर्ष , डर्बी में 21 वर्ष थी ।
  • नए औद्योगिक नगरों में पैदा होने वाले बच्चों में से आधे तो पाँच साल की आयु प्राप्त करने से पहले ही चल बसते थे ।
  • शहरों की आबादी में वृद्धि वहाँ पहले से रह रहे परिवारों में नए पैदा हुए बच्चों से नहीं बल्कि बाहर से आकर बसने वाले नए लोगों से ही होती थी ।
  • मौतें ज्यादातर उन महामारियों के कारण होती थीं जो जल प्रदूषण से , जैसे हैज़ा ( Cholera ) तथा आंत्रशोथ ( Typhoid ) से और वायु प्रदूषण से , जैसे क्षयरोग ( Tuberculosis ) से होती थीं ।
  • 1832 में हैज़े का भीषण प्रकोप हुआ जिसमें 31,000 से अधिक लोग काल के गर्त में समा गए ।
  • उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों तक स्थिति यह थी कि नगर प्राधिकारी जीवन की इन भयंकर परिस्थितियों की ओर कोई ध्यान नहीं देते थे
  • इन बीमारियों के निदान और उपचार के बारे में चिकित्सकों या अधिकारियों को कोई जानकारी नहीं थी ।

 

औरतें , बच्चे और औद्योगीकरण

महिला और बच्चों की स्थिति

  • औद्योगिक क्रांति एक ऐसा समय था जब औरतों और बच्चों के काम करने के तरीकों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए ।
  • ग्रामीण गरीबों के बच्चे हमेशा घर में या खेत में अपने माता – पिता या संबंधियों की निगरानी में तरह – तरह के काम किया करते थे
  • गाँवों में औरतें भी खेत के काम में सक्रिय रूप से हिस्सा लेती थीं ; वे पशुओं का पालन पोषण करती थीं , लकड़ियाँ इकट्ठी करती थीं और अपने घरों में चरखे चलाकर सूत कातती थीं ।
  • कारखानों में लगातार कई घंटों तक एक ही तरह का काम कठोर अनुशासन तथा भयावह परिस्थितियों में कराया जाता था ।
  • मर्दों की मज़दूरी मामूली होती थी , उससे अकेले घर का खर्च नहीं चल सकता था जिसे पूरा करने के लिए औरतों और बच्चों को भी कुछ कमाना पड़ता था ।
  • उद्योगपति मर्दों की बजाय औरतों और बच्चों को अपने यहाँ काम पर लगाना अधिक पसंद करते थे क्योंकि एक तो उनकी मज़दूरी कम होती थी और दूसरे वे अपने काम की घटिया परिस्थितियों के बारे में भी कम आंदोलित हुआ करते थे ।
  • स्त्रियों और बच्चों को लंकाशायर और बॉकशायर नगरों के सती कपड़ा उद्योग में बड़ी संख्या में काम पर लगाया जाता था ।
  • रेशम फ़ीते बनाने और बनने के उद्योग – धंधों में और बर्मिंघम के धातु उद्योगों में बच्चों के साथ – साथ ) औरतों को ही अधिकतर नौकरी दी जाती थी ।
  • बच्चों को अक्सर कपड़ा मिलों में रखा जाता था क्योंकि वहाँ सटाकर रखी गई मशीनों के बीच से छोटे बच्चे आसानी से आ – जा सकते थे ।
  • बच्चों से कई घंटों तक काम लिया जाता था ,
  • कई बार तो बच्चों के बाल मशीनों में फँस जाते थे या उनके हाथ कुचल जाते थे
  • कोयले की खानें भी काम करने के लिहाज़ से बहुत खतरनाक होती थीं । खानों की छतें धँस जाती थीं अथवा वहाँ विस्फोट हो जाता था
  • कोयला खानों में वयस्कों के लिए बहुत संकरा होता था , वहाँ बच्चों को ही भेजते थे । छोटे बच्चों को कोयला खानों में ‘ ट्रैपर ‘ का काम भी करना पड़ता था ।
  • ब्रिटिश फैक्ट्रियों के अभिलेखों से प्राप्त साक्ष्यों से पता चलता है कि फैक्ट्री मज़दूरों में से लगभग आधों ने तो वहाँ दस साल से भी कम उम्र में और 28 प्रतिशत मज़दूरों ने वहाँ 14 साल से कम की आयु में काम करना शुरू किया था ।
  • औरतों को मज़दूरी मिलने से न केवल वित्तीय स्वतंत्रता मिली बल्कि उनके आत्मसम्मान में भी बढ़ोतरी हुई ।
  • लेकिन इससे उन्हें जितना लाभ हुआ उससे कहीं ज्यादा हानि काम की अपमानजनक परिस्थितियों के कारण हुई ।
  • अक्सर उनके बच्चे पैदा होते ही या शैशवावस्था में ही मर जाते थे और उन्हें अपने औद्योगिक काम की वजह से मजबूर होकर शहर की घिनौनी व गंदी बस्तियों में रहना पड़ता था ।

 

विरोध आंदोलन

  • ब्रिटेन की संसद ने 1795 में दो जुड़वाँ अधिनियम पारित किए , जिनके अंतर्गत ‘ लोगों को भाषण या लेखन द्वारा सम्राट संविधान , या सरकार के विरुद्ध घृणा या अपमान करने के लिए उकसाना ‘ अवैध घोषित कर दिया गया
  • 50 से अधिक लोगों की अनधिकृत सार्वजनिक बैठकों पर रोक लगा दी गई । लेकिन ‘ पुराने भ्रष्टाचार ‘ ( Old Corruption ) के विरुद्ध आंदोलन बराबर चलता रहा । ‘ पुराना भ्रष्टाचार ‘ शब्द का प्रयोग राजतंत्र और संसद के संबंध में किया जाता था ।
  • संसद के सदस्य जिनमें भू – स्वामी , उत्पादक तथा पेशेवर लोग शामिल थे , कामगारों को वोट का अधिकार दिए जाने के खिलाफ़ थे ।
  • उन्होंने कार्न लॉज़ ( अनाज के कानून ) का समर्थन किया । इस कानून के अंतर्गत विदेश से सस्ते अनाज के आयात पर रोक लगा दी गई थी जब तक कि ब्रिटेन में इन अनाजों की कीमत में एक स्वीकृत स्तर तक वृद्धि न हो गई हो ।
  • जैसे – जैसे श्रमिकों की तादाद शहरों और कारखानों में बढ़ी , वे अपने गुस्से और हताशा को हर तरह के विरोध में प्रकट करने लगे ।
  • 1790 के दशक से पूरे देश भर में ब्रेड अथवा खाद्य के लिए दंगे होने लगे ।
  • गरीबों का मुख्य आहार ब्रैड ही था और इसकी कीमत पर ही उनके रहन – सहन का स्तर निर्भर करता था
  • ब्रैड के भंडारों पर कब्जा कर लिया गया और उन्हें मुनाफाखोरों द्वारा लगाई गई ऊँची कीमतों से काफ़ी कम मूल्य में बेचा जाने लगा जो आम आदमी के लिए नैतिक दृष्टि से भी सही थीं ।
  • परेशानी का एक कारण और भी था जिसे चकबंदी या बाड़ा पद्धति कहते हैं , जिसके द्वारा 1770 के दशक से छोटे – छोटे सैकड़ों फार्म ( खेत ) शक्तिशाली ज़मींदारों के बड़े फार्मों में मिला दिए गए ।
  • इस पद्धति से बुरी तरह से प्रभावित हुए गरीब परिवारों ने औद्योगिक काम देने की मांग की । लेकिन कपड़ा उद्योग में मशीनों के प्रचलन से हजारों की संख्या में हथकरघा बुनकर बेरोजगार होकर गरीबी की मार झेलने को मजबूर हो गए , क्योंकि उनका करघा मशीनों का मुकाबला नहीं कर सकता था ।
  • 1790 के दशक से बुनकर लोग अपने लिए न्यूनतम वैध मजदूरी की माँग करने लगे । संसद ने इस माँग को ठुकरा दिया ।
  • वे हड़ताल पर चले गए तो उन्हें जबरदस्ती तितर – बितर कर दिया गया ।
  • हताश होकर सूती कपड़े के बुनकरों ने लंकाशावर में पावरलूमों को नष्ट कर दिया क्योंकि वे समझते थे कि इन बिजली के करघों ने ही उनकी रोजी रोटी छीनी
  • ये लोग परंपरागत रूप से अपने हाथों से भेड़ों के बालों की कटाई करते थे ।
  • 1830 के दंगों में फार्मों में काम करने वाले श्रमिकों को भी लगा कि उनका धंधा तो चौपट होने वाला है क्योंकि खेती में भूसी से दाना अलग करने के लिए नयी खलिहानी मशीनों ( थ्रेशिंग मशीन ) का इस्तेमाल शुरू हो गया था ।
  • दंगाइयों ने इन मशीनों को तोड़ डाला ।
  • एक करिश्माई व्यक्तित्व वाले जनरल नेड लुड के नेतृत्व में लुडिज्म ( 1811-17 ) नामक अन्य आंदोलन चलाया गया । यह एक अन्य किस्म के विरोध प्रदर्शन का उदाहरण था । लुडिज्म के अनुयायी मशीनों की तोड़फोड़ में ही विश्वास नहीं करते थे , बल्कि न्यूनतम मजदूरी , नारी एवं बाल श्रम पर नियंत्रण , मशीनों के आविष्कार से बेरोजगार हुए लोगों के लिए काम और कानूनी तौर पर अपनी माँगें पेश करने के लिए मजदूर संघ ( ट्रेड यूनियन ) बनाने के अधिकार की भी माँग करते थे ।
  • अगस्त 1819 में 80,000 लोग अपने लिए लोकतांत्रिक अधिकारों , अर्थात् राजनीतिक संगठन बनाने , सार्वजनिक सभाएँ करने और प्रेस की स्वतंत्रता के अधिकारों की मांग करने के लिए मैनचेस्टर में सेंट पीटर्स ( St. Peter’s Field ) मैदान में शांतिपूर्वक इकट्ठे हुए ।
  • लेकिन उनका बर्बरतापूर्वक दमन कर दिया गया । इसे पीटर लू के नरसंहार ( Peterloo Massacre ) के नाम से जाना जाता है ।

 

कानूनों के जरिये सुधार

  • 1819 में कुछ कानून बनाए गए जिनके तहत नौ वर्ष से कम की आयु वाले बच्चों से फैक्ट्रियों में काम करवाने पर पाबंदी लगा दी गई
  • और नौ से सोलह वर्ष की आयु वाले बच्चों से काम कराने की सीमा 12 घंटे तक सीमित कर दी गई
  • 1833 में एक अधिनियम पारित किया गया जिसके अंतर्गत नौ वर्ष से कम आयु वाले बच्चों को केवल रेशम की फैक्ट्रियों में काम पर लगाने की अनुमति दी गई , बड़े बच्चों के लिए काम के घंटे सीमित कर दिए गए
  • कुछ फैक्ट्री निरीक्षकों व्यवस्था कर दी गई जिससे कि अधिनियम के प्रवर्तन तथा पालन को सुनिश्चित किया सके ।
  • 1847 में दस घंटे विधेयक पारित कर दिया गया । इस कानून ने स्त्रियों और युवकों के लिए काम के घंटे सीमित कर दिए और पुरुष श्रमिकों के लिए 10 घंटे का दिन निश्चित कर दिया । ये अधिनियम कपड़ा उद्योगों पर ही लागू होते थे , खनन उद्योग पर नहीं ।
  • सरकार द्वारा स्थापित , 1842 के खान आयोग ने यह उजागर कर दिया कि खानों में काम करने की परिस्थितियाँ पहले कहीं अधिक खराब हो गई हैं , क्योंकि पहले से अधिक संख्या में बच्चों को कोयला खानों में काम पर लगाया जा रहा था ।
  • 1842 के खान और कोयला खान अधिनियम ने दस वर्ष से कम आयु के बच्चों और स्त्रियों से खानों में नीचे काम लेने पर पाबंदी लगा दी ।
  • फील्डर्स फैक्ट्री अधिनियम ने 1847 में यह कानून बना दिया कि अठारह साल से कम उम्र के बच्चों और स्त्रियों से 10 घंटे प्रतिदिन से अधिक काम न लिया जाए ।

 

औद्योगिक क्रांति के विषय में तर्क – वितर्क

  • ‘ औद्योगिक क्रांति ‘ शब्द का प्रयोग ब्रिटेन में 1780 के दशक से 1820 के दशक के बीच हुए औद्योगिकी विकास व विस्तारों के लिए करते थे ।
  • लेकिन उसके बाद इस शब्द के प्रयोग को अनेक आधार पर चुनौती दी जाने लगी ।
  • दरअसल औद्योगीकरण की क्रिया इतनी धीमी गति से होती रही कि इसे ‘ क्रांति ‘ कहना ठीक नहीं होगा
  • फैक्ट्रियों में श्रमिकों का जमावड़ा पहले की अपेक्षा अधिक हो गया और धन का प्रयोग भी पहले से अधिक व्यापक रूप से होने लगा ।
  • उन्नीसवीं शताब्दी शुरू होने के काफी समय बाद तक भी इंग्लैंड के बड़े – बड़े क्षेत्रों में कोई फैक्ट्रियाँ या खानें नहीं थीं , इसलिए ‘ औद्योगिक क्रांति ‘ शब्द ‘ अनुपयुक्त ‘ समझा गया ।
  • इंग्लैंड में परिवर्तन क्षेत्रीय तरीके से हुआ प्रमुख रूप से लंदन , मैनचेस्टर , बर्मिंघम ( Birmingham ) या न्यूकासल ( Newcastle ) नगरों के चारों ओर न कि संपूर्ण देश में
  • नयी मशीनों के कारण सूती कपड़ा उद्योग में जो ध्यानाकर्षणकारी संवृद्धि हुई वह भी एक ऐसे कच्चे माल ( कपास ) पर आधारित थी जो ब्रिटेन में बाहर से मँगाया जाता था और तैयार माल भी दूसरे देशों में ( विशेषत : भारत में ) बेचा जाता था ।
  • धातु से बनी मशीनें और भाप की शक्ति तो उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक दुर्लभ रहीं ।
  • ब्रिटेन के आयात और निर्यात में 1780 के दशक से जो तेज़ी से वृद्धि हुई उसका कारण यह था कि अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम के कारण उत्तरी अमरीका के साथ जो व्यापार बाधित हो गया था वह फिर से शुरू हो गया ।
  • औद्योगीकरण 1815-20 से पहले की बजाय बाद में दिखाई दिया था ।
  • 1793 के बाद के दशकों में फ्रांसीसी क्रांति और नेपोलियन के युद्धों के विघटनकारी प्रभावों का अनुभव किया गया था ।
  • औद्योगीकरण को देश के धन के पूँजी निर्माण में या आधारभूत ढाँचा तैयार करने में अथवा नयी – नयी मशीनें लगाने के लिए अधिकाधिक निवेश करने में इन सुविधाओं के कुशलतापूर्ण उपयोग के स्तरों को बढ़ाने और उत्पादकता में वृद्धि करने के साथ जोड़ा जाता है ।
  • यानि लाभदायक निवेश इन मायनों उत्पादकता के स्तरों के साथ – साथ 1820 के बाद धीरे – धीरे बढ़ने लगा ।
  • 1840 के दशक तक कपास , लोहा और इंजीनियरिंग उद्योगों से आधे से भी कम औद्योगिक उत्पादन होता था ।
  • ब्रिटेन में औद्योगिक विकास 1815 से पहले की अपेक्षा उसके बाद अधिक तेजी से क्यों हुआ ?
  • इतिहासकारों ने इस तथ्य की ओर इशारा किया है कि 1760 के दशक 1815 तक ब्रिटेन ने एक साथ दो काम करने की कोशिश की- पहला औद्योगिकरण और दूसरा यूरोप , उत्तरी अमरीका और भारत में युद्ध लड़ना
  • जो पूंजी निवेश के लिए उधार ली गई थी वह युद्ध लड़ने में खर्च की गई ।
  • 35 प्रतिशत तक खर्च लोगों की आमदनियों पर कर लगाकर पूरा किया जाता था ।
  • कामगारों और श्रमिकों को कारखानों तथा खेतों में से निकालकर सेना में भर्ती कर दिया जाता था ।
  • खाद्य सामग्रियों की कीमतें तो इतनी तेज़ी से बढ़ीं कि गरीबों के पास अपनी उपभोक्ता सामग्री खरीदने के लिए भी बहुत कम पैसा बचता था ।
  • नेपोलियन की नाकाबंदी की नीति और ब्रिटेन द्वारा उसे नाकाम करने की कोशिशों ने यूरोप महाद्वीप को व्यापारिक दृष्टि से अवरुद्ध कर दिया ।
  • ‘ क्रांति ‘ के साथ प्रयुक्त ‘ औद्योगिक ‘ शब्द अर्थ की दृष्टि से बहुत सीमित है ।
  • इस दौरान जो रूपांतरण हुआ वह आर्थिक तथा औद्योगिक क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रहा , बल्कि उसका विस्तार इन क्षेत्रों से परे तथा समाज के भीतर भी हुआ
  • इसके फलस्वरूप दो वर्गों को प्रधानता मिली : पहला था बुर्जुआ वर्ग यानी मध्यम वर्ग और दूसरा था नगरों और देहाती इलाकों में रहने वाला मजदूरों का सर्वहारा वर्ग ।

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