NCERT Class 10 Sparsh Chapter 6 Poem Explanation मधुर मधुर मेरे दीपक जल

Sparsh Chapter 6 Poem Explanation मधुर मधुर मेरे दीपक जल

NCERT Class 10 Sparsh Chapter 6 Poem Explanation मधुर मधुर मेरे दीपक जल, (Hindi) exam are Students are taught thru NCERT books in some of the state board and CBSE Schools. As the chapter involves an end, there is an exercise provided to assist students to prepare for evaluation. Students need to clear up those exercises very well because the questions inside the very last asked from those.

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NCERT Class 10 Hindi Sparsh Chapter 6 Poem Explanation मधुर मधुर मेरे दीपक जल

 

पाठ की रूपरेखा

कवयित्री ने संपूर्ण सृष्टि को ही परमेश्वर का साकार रूप माना है और वह प्रभु – ज्ञान के आलोक से अज्ञानता के अंधकार को से नष्ट करना चाहती हैं । कवयित्री के अनुसार , आत्मा , परमात्मा का अंश है । प्रत्येक आत्मा ईश्वर के साथ मिलकर एकाकार हो जाना चाहती है । इसलिए आत्मारूपी दीपक को ईश्वर रूपी प्रियतम से मिलने तक जलते रहना चाहिए अर्थात् आस्था का आश्रय नहीं छोड़ना चाहिए ।

 

काव्यांशों की व्याख्या

काव्यांश 1

मधुर मधुर मेरे दीपक जल !

प्रियतम का पथ आलोकित कर !

मृदुल मोम – सा घुल रे मृदु तन ;

तेरे जीवन का अणु गल गल !

युग – युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल ,

सौरभ फैला विपुल धूप बन ,

दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित ,

पुलक – पुलक मेरे दीपक जल !

शब्दार्थ

पथ – रास्ता

आलोकित- प्रकाशित

मृदुल- कोमल

प्रतिक्षण- हर समय

सौरभ – खुशबू

विपुल – अत्यधिक

धूप- सुगंधित पदार्थ

अणु- कण

सिंधु – सागर

अपरिमित – अपार

पुलक- प्रसन्न , रोमांच

भावार्थ – प्रस्तुत काव्यांश में कवयित्री की आस्था का मनोहारी चित्रण किया गया है । वह अपने मन में जल रहे प्रभु की आस्था रूपी दीपक को निरंतर जलते रहने के लिए कहती है । मेरे मन में जल रहे प्रभु – आस्था रूपी दीपक ! तुम धीरे – धीरे प्रतिक्षण , प्रतिदिन जलते रहो ताकि मेरे प्रियतम को उससे प्रकाश मिलता रहे और उनका पथ यानी मार्ग प्रकाशित होता रहे । कवयित्री कहती है – ओ मेरी आस्था के दीपक ! तू अपनी महिमा से अपार मोहक सुगंधित धूप बन जा । अपनी मोहक खुशबू चारों ओर फैला दे , तू अपने इस नरम- कोमल , मोम के समान शरीर को पिघला दे । इससे आशय यह है कि तू अपनी कोमल भावनाओं को लिए हुए ईश्वर के चरणों में समर्पित हो जा । तू अपने जीवन के एक – एक कण को गला दे । चारों ओर अपार समुद्र रूपी विस्तृत प्रकाश फैला दे । इसी प्रकार प्रसन्न व रोमांचित कर तू जलता रह जिससे मेरे प्रियतम का पथ आलोकित ( प्रकाशित ) होता रहे ।

काव्य सौंदर्य

( i ) इस काव्यांश में कवयित्री ने अपने हृदय में प्रभु के प्रति निरंतर आस्था बनाए रखने का वर्णन किया है ।

( ii ) तत्सम शब्दावली का अत्यधिक प्रयोग किया गया है , लेकिन भाषा भावों की अभिव्यक्ति करने में पूरी तरह सक्षम है ।

( iii ) ‘ युग – युग ‘ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है ।

( iv ) ‘ दीपक ‘ में छद्म रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है , जो ईश्वर के प्रति असीम आस्था का प्रतीक भी है ।

( v ) ‘ धूप ‘ तथा ‘ मोम ‘ में भी छद्म रूपक अलंकार उपस्थित है । तन रूपी धूप तथा मोम रूपी कोमल शरीर को कवयित्री लगातार प्रभु भक्ति में लगाना चाहती है ।

( vi ) काव्यांश में प्रतीकों का प्रयोग सहजता से किया गया है ।

काव्यांश 2

सारे शीतल कोमल नूतन ,

विश्व – शलभ सिर धुन कहता

सिहर सिहर मेरे दीपक जल !

माँग रहे तुझसे ज्वाला- कण

‘ मैं हाय न जल पाया तुझमें मिल ‘ !

शब्दार्थ

शीतल- ठंडा

नूतन- नवीन

शलभ – पतंगा

सिर धुन – पछतावा करना

सिहर – थरथराना / काँपना

ज्वाला- कण- आग की लपट

भावार्थ – प्रस्तुत काव्यांश में कवयित्री ने स्वयं का अस्तित्व मिटाकर अनंत प्रकाश पुंज में विलीन हो जाने की कामना की है । कवयित्री कहती है कि इस संपूर्ण संसार में जितने भी शीतल , कोमल और नूतन प्राणी हैं , वे कवयित्री के आस्थारूपी दीपक से चिंगारी माँग रहे हैं । इससे आशय यह है कि प्रभु के प्रति आस्था की किरण कहीं खोजने से भी नहीं मिलती । इस किरण की गर्मी के अभाव से संपूर्ण जगत ठंडा प्रतीत होता है । सभी अपने मन में आस्था की लौ जलाना चाहते हैं । कवयित्री मनुष्य को पतंगा नहीं , बल्कि ज्वाला बनने के लिए प्रेरित करती है जिससे वे समाज को ज्ञान रूपी प्रकाश दे सकें , क्योंकि संसार रूपी पतंगा सिर पकड़ – पकड़ कर रोता है । वह चाहते हुए भी अपने अहंकार को नहीं मिटा सका । अतः हे मेरी आस्था के दीपक ! तू विश्व में व्याप्त इस आस्थाहीन स्थिति पर काँपते हुए भी जलता रह । आस्था की यह किरण बहुत मूल्यवान एवं ऊर्जा प्रदायिनी है ।

काव्य सौंदर्य

( i ) उपरोक्त काव्यांश में कवयित्री ने अपनी आस्था को दुर्लभ बताते हुए उसको निरंतर विद्यमान रहने की कामना व्यक्त की है ।

( ii ) संस्कृतनिष्ठ , मधुर एवं सरस भाषा का प्रयोग है ।

( iii ) ‘ विश्व – शलभ ‘ में रूपक अलंकार मौजूद है ।

( iv ) ‘ सिहर – सिहर ‘ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है ।

( v ) संपूर्ण काव्यांश में प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग किया गया है ।

( vi ) ‘ सिर धुनना ‘ मुहावरे का प्रयोग किया गया है ।

काव्यांश 3

जलते नभ में देख असंख्यक ,

जलमय सागर का उर जलता ,

विहँस – विहँस मेरे दीपक जल !

स्नेहहीन नित कितने दीपक ;

विद्युत ले घिरता है बादल !

शब्दार्थ

नभ – आकाश

असंख्यक- अनगिनत

जलमय- पानी से भरा हुआ

उर- हृदय

विहँस- खुश

स्नेहहीन- प्रेम रहित

नित- सदैव

विद्युत – बिजली / दामिनी

भावार्थ – कवयित्री आकाश की ओर देखती हुई कहती है कि यहाँ असंख्य तारे दिखाई देते हैं , लेकिन कोई भी तारा या प्राणी भक्ति की किरण से प्रज्वलित नहीं है । समुद्र में भी पानी ही पानी है , यहाँ सांसारिक समृद्धि भरपूर है , किंतु हृदय में आत्मिक आस्था न होने के कारण प्राणियों का चित्त ईर्ष्या और तृष्णा से ज्वलित रहता है । इस गर्मी या तपिश से ही उसका जल वाष्प बनकर बादल में परिवर्तित हो जाता है और कड़कती बिजली के साथ आकाश में घनघोर घटा के रूप में दिखाई पड़ता है । बादल चमकती हुई बिजली से घिरे हुए हैं । इसी तरह , मनुष्य सांसारिक ऐश्वर्य एवं वैभव से परिपूर्ण होकर भी अशांत है , उसका हृदय ईर्ष्या एवं घृणा की आग से निरंतर जलता रहता है । अतः कवयित्री स्वयं के हृदय में स्थित आस्था रूपी दीपक को संबोधित करते हुए कहती है तू खुशी से और ज़ोर – ज़ोर से ज्वलित होकर अपनी आस्था को जीवित रख , ताकि प्रभु का पथ आलोकित हो और समस्त जगतवासी उस मार्ग को पहचान कर उसका अनुसरण कर सकें ।

काव्य सौंदर्य

( i ) कवयित्री अपने हृदय में विद्यमान आध्यात्मिक भाव को प्रज्वलित रखना चाहती है ।

( ii ) तत्सम शब्दावली का मुक्त भाव से प्रयोग किया गया है ।

( iii ) भावानुकूल एवं संगीतात्मक भाषा है ।

( iv ) ‘ विहँस – विहँस ‘ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार मौजूद है ।

( v ) संपूर्ण काव्यांश में प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग किया गया है ।

( vi ) भाषा पर छायावाद एवं रहस्यवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है ।

( vii ) बिंबों का प्रयोग कविता में जीवंतता प्रकट करता है ।

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