NCERT Class 10 Sparsh Chapter 5 Poem Explanation पर्वत प्रदेश में पावस

Sparsh Chapter 5 Poem Explanation पर्वत प्रदेश में पावस

NCERT Class 10 Sparsh Chapter 5 Poem Explanation पर्वत प्रदेश में पावस, (Hindi) exam are Students are taught thru NCERT books in some of the state board and CBSE Schools. As the chapter involves an end, there is an exercise provided to assist students to prepare for evaluation. Students need to clear up those exercises very well because the questions inside the very last asked from those.

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NCERT Class 10 Hindi Sparsh Chapter 5 Poem Explanation पर्वत प्रदेश में पावस

 

पाठ की रूपरेखा

प्रस्तुत कविता में पर्वतीय प्रदेश में वर्षा ऋतु का वर्णन किया गया है । पर्वतीय प्रदेश में वर्षा ऋतु आने पर प्रकृति क्षण – क्षण में अपना रूप बदलती रहती है । कवि ने ऐसी ही अपनी एक अनुभूति को कविता के रूप में अभिव्यक्त करते हुए तालाब और झरनों का सुंदर ढंग से चित्रण किया है । कवि ने पहाड़ों को मानवीकृत रूप में चित्रित करते हुए उनकी ( पहाड़ों ) चोटी पर खड़े विशाल वृक्षों का वर्णन करते हुए उनके मन की आकांक्षाओं को मूर्त रूप में अभिव्यक्त किया है ।

 

काव्यांशों की व्याख्या

काव्यांश 1

पावस ऋतु थी , पर्वत प्रदेश ,

पल – पल परिवर्तित प्रकृति – वेश ।

मेखलाकार पर्वत अपार

अपने सहस्र दृग – सुमन फाड़ ,

अवलोक रहा है बार – बार

नीचे जल में निज महाकार ,

जिसके चरणों में पला ताल

दर्पण – सा फैला है विशाल !

शब्दार्थ

पावस- वर्षा ऋतु

पर्वत प्रदेश- पर्वतीय क्षेत्र, पहाड़ी क्षेत्र

पल – पल – हर क्षण

प्रकृति – वेश प्रकृति का रूप

मेखलाकार- करधनी के आकार की पहाड़ की ढाल

अपार – विशाल , असीम

सहस्र- हज़ार

दृग- सुमन- पुष्प रूपी आँखें

फाड़ – खोलकर

अवलोक- देखना

निज- अपना

महाकार – विशाल आकार

ताल – तालाब

दर्पण – आईना , शीशा

भावार्थ – सुमित्रानंदन पंत एक पर्वतीय क्षेत्र का वर्णन करते हुए कहते हैं कि उस समय वर्षा ऋतु का समय था तथा पर्वतीय क्षेत्र था । ऐसे समय में प्रकृति हर पल अपने रूप को परिवर्तित कर रही थी । ठीक सामने करधनी के समान विशाल पर्वत दूर – दूर तक फैले हुए थे । उस पर्वत पर खिले हुए हज़ारों फूल ऐसे लग रहे थे मानो वे पर्वत की आँखें हों और पर्वत अपनी उन असंख्य आँखों से नीचे तालाब के फैले हुए जल में अपने विशालकाय शरीर के प्रतिबिंब को देख रहा हो । वास्तव में , उसी पर्वत के पास एक विशाल तालाब भी था , जिसका जल इतना स्वच्छ और पारदर्शी था कि उसमें पर्वत का प्रतिबिंब आईने के समान दिखाई दे रहा था ।

काव्य सौंदर्य

( i ) इसमें चित्रात्मक शैली के माध्यम से प्राकृतिक सौंदर्य का जीवंत चित्रण किया गया है ।

( ii ) इसकी भाषा सहज , लेकिन सामासिक है , जिसमें संस्कृत शब्दावली का प्रयोग किया गया है ।

( iii ) ‘ पर्वत प्रदेश ‘ तथा ‘ परिवर्तित प्रकृति ‘ में अनुप्रास अलंकार ‘ में विद्यमान है ।

( iv ) ‘ पल – पल ‘ तथा ‘ बार – बार ‘ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार मौजूद है ।

( v ) ‘ दृग – सुमन ‘ में रूपक अलंकार तथा ‘ दर्पण – सा फैला ‘ में उपमा अलंकार है ।

काव्यांश 2

गिरि का गौरव गाकर झर झर

मद में नस – नस उत्तेजित कर

मोती की लड़ियों से सुंदर

झरते हैं झाग भरे निर्झर !

गिरिवर के उर से उठ उठ कर

उच्चाकांक्षाओं से तरुवर

हैं झाँक रहे नीरव नभ पर

अनिमेष , अटल , कुछ चिंतापर ।

शब्दार्थ

गिरि- पहाड़

गौरव – महिमा , बड़ाई

मद – मस्ती

नस – नस- रग – रग

उत्तेजित – जोश से भरे हुए

लड़ी – श्रृंखला , माला

झरते – गिरते

झाग – फेन

निर्झर – झरना

उर- हृदय

उच्चाकांक्षा- ऊँचा उठने की कामना

तरुवर – बड़े – बड़े पेड़

नीरव नभ- शांत आकाश

अनिमेष- एकटक देखना

चिंतापर – चिंतित , चिंता में मग्न

भावार्थ – कवि कहता है कि पर्वतों पर बहने वाले झरनों की झर झर की आवाज़ को सुनकर ऐसा लगता है , मानो वे पर्वतों का गुणगान कर रहे हों । उनकी आवाज़ को सुनकर नस – नस में जोश भर जाता है तथा मन उत्साह एवं उमंग से भर जाता है । पर्वतों पर बहने वाले झाग से भरे झरने झरते समय मोतियों की लड़ियों के समान सुंदर लग रहे हैं । पहाड़ों पर उगे हुए विशाल एवं ऊँचे पेड़ों के मन में ऊँची – ऊँची आकांक्षाएँ छिपी हैं । ये शांत आकाश को बिना पलक झपकाए , अटल और कुछ चिंता में डूबे हुए से झाँक रहे हैं । इन्हें देखकर ऐसा लगता है , जैसे वे आकाश के रहस्यों को जानना चाहते हों ।

काव्य सौंदर्य

( i ) भाषा प्रभावोत्पादक होने के साथ – साथ भावों की अभिव्यक्ति में पूर्णतः सक्षम है ।

( ii ) संस्कृत शब्दों का प्रयोग स्वच्छंदतापूर्वक किया गया है ।

( iii ) ‘ झर – झर ‘ , ‘ नस – नस ‘ तथा ‘ उठ उठ ‘ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार मौजूद है ।

( iv ) ‘ झरते झाग ‘ , ‘ नीरव नभ ‘ तथा ‘ अनिमेष अटल ‘ में अनुप्रास अलंकार विद्यमान है ।

( v ) ‘ मोतियों की लड़ियों से सुंदर ‘ तथा ‘ उच्चाकांक्षाओं से तरुवर ‘ में उपमा अलंकार मौजूद है ।

काव्यांश 3

उड़ गया , अचानक लो , भूधर

फड़का अपार पारद के पर !

रव- शेष रह गए हैं निर्झर !

है टूट पड़ा भू पर अंबर !

धँस गए धरा में सभय शाल !

उठ रहा धुआँ , जल गया ताल !

यों जलद – यान में विचर- विचर

था इंद्र खेलता इंद्रजाल

शब्दार्थ

भूधर – पहाड़

अपार- जिसका पार न हो , असीमित

पारद के पर – पारे के समान धवल एवं चमकीले पंखों वाला बादल

रव शेष- केवल आवाज़ का रह जाना / चारों ओर शांत , निस्तब्ध वातावरण में केवल पानी के गिरने की आवाज़ का रह जाना

भू- धरती

धँस गए- नीचे दब गए

सभय – भय के साथ

शाल- एक वृक्ष का नाम जो पहाड़ो पर पाया जाता है

ताल- तालाब

जलद यान- बादल रूपी विमान

विचर विचर- घूम कर

इंद्रजाल- जादूगरी भरे कारनामें

भावार्थ – कवि वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए कहता है कि ऐसा लग रहा है जैसे अचानक एक पूरा पर्वत पारे के समान अत्यधिक सफ़ेद और चमकीले पंखों को फड़फड़ाता हुआ ऊपर आकाश में उड़ रहा है । झरनों की तो केवल आवाज़ ही सुनाई दे रही है अर्थात् वही शेष रह गई है । इसके पश्चात् इन बादलों से इतनी तेज़ वर्षा हुई , जैसे आकाश धरती पर टूट पड़ा हो और उसने वर्षा रूपी बाणों से धरती पर आक्रमण कर दिया हो ।

शाल के विशाल वृक्ष बादलों के झुंड में ऐसे प्रतीत हो रहे हैं , जैसे वे भयभीत होकर धरती में धँस गए हों । तालाब के जल से इस तरह धुआँ उठने लगा है मानो उसमें आग लग गई हो । इस प्रकार वर्षा के देवता इंद्र बादल रूपी विमान में घूम – घूमकर अपने जादुई करतब दिखा रहे हैं , जिसके कारण पर्वतों पर क्षण – क्षण में विचित्र और अद्भुत दृश्य दिखाई दे रहे हैं ।

काव्य सौंदर्य

( i ) प्राकृतिक सौंदर्य का सजीव चित्रण करने के लिए चित्रात्मक शैली का प्रयोग किया गया है ।

( ii ) जीवंत चित्रण के लिए दृश्य बिंब का प्रयोग हुआ है ।

( iii ) भाषा सहज , लेकिन संस्कृतनिष्ठ है ।

( iv ) ‘ अपार पारद के पर ‘ में रूपक अलंकार तथा ‘ विचर – विचर ‘ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार निहित है ।

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