NCERT Class 10 Sparsh Chapter 4 Poem Explanation मनुष्यता

Sparsh Chapter 4 Poem Explanation मनुष्यता

NCERT Class 10 Sparsh Chapter 4 Poem Explanation मनुष्यता, (Hindi) exam are Students are taught thru NCERT books in some of the state board and CBSE Schools. As the chapter involves an end, there is an exercise provided to assist students to prepare for evaluation. Students need to clear up those exercises very well because the questions inside the very last asked from those.

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NCERT Class 10 Hindi Sparsh Chapter 4 Poem Explanation मनुष्यता

 

पाठ की रूपरेखा

प्रस्तुत कविता में मनुष्य को परोपकार , राष्ट्र हित और उदारता – की भावना को अपने जीवन में अपनाने के लिए प्रेरित किया गया है । इस कविता में ‘ स्व ‘ की भूमि से उठकर ‘ पर ‘ की भूमि तक जाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को संबोधित किया गया है । कवि ने मानवता ( मनुष्यता ) के पूरे पूरे लक्षण उसी मनुष्य में माने हैं , के जिसमें अपने और अपनों के हित चिंतन से कहीं पहले और सर्वोपरि दूसरों का हित चिंतन हो ।

 

काव्यांशों की व्याख्या

काव्यांश 1

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी ,

मरो , परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी ।

हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे , वृथा जिए ,

मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए ।

वही पशु – प्रवृत्ति है कि आप – आप ही चरे ,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।

शब्दार्थ

मर्त्य – मरणशील , जिसका मरना तय है

सुमृत्यु – गौरवशाली मृत्यु

वृथा – बेकार , व्यर्थ

पशु- प्रवृत्ति – पशु जैसा स्वभाव

चरे- उदर पूर्ति करना , भोग करना , खाए – पिए

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि मनुष्य जीवन के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहता है कि मानव जीवन नश्वर है , मनुष्य मरणशील है , जिसका जन्म हुआ है , उसकी मृत्यु भी अवश्य होनी है । इसलिए जब मृत्यु निश्चित है , तो फिर उससे भयभीत नहीं होना चाहिए । हमारी मृत्यु ऐसी होनी चाहिए कि मृत्यु के उपरांत भी लोग महान् कार्यों के लिए हमें सदैव स्मरण करें । कोई ऐसा महान् और गौरवशाली काम करते – करते मरो , ताकि तुम्हारी मृत्यु गौरवशाली मृत्यु कहलाए । हमारी मृत्यु के पश्चात् लोग हमें याद नहीं करते और हमारी याद में आँसू नहीं बहाते , तो हमारा जीवन – मरण दोनों ही व्यर्थ हैं । हमारी मृत्यु भी लोक कल्याण के हितार्थ होनी चाहिए ।

जो मनुष्य अपने जीवन में लोकमंगलकारी कार्य में अपना समय नहीं बिताते , उनका जीवन पशुतुल्य होता है , क्योंकि मात्र पशु ही अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति हेतु जीवन जीता है । सच्चा मनुष्य वह है , जो संपूर्ण मनुष्यता के लिए जीता और मरता है । इसलिए वास्तव में मनुष्य कहलाने का अधिकारी वही है , जिसमें स्वार्थ भाव के स्थान पर परमार्थ भाव है । जो दूसरों की हितपूर्ति के लिए अपना जीवन जीता है ।

काव्य सौंदर्य

( i ) कवि ने परोपकार के लिए जीने वाले की मृत्यु को ‘ सुमृत्यु ‘ कहा है ।

( ii ) संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है ।

( iii ) आप – आप ‘ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है ।

( iv ) संपूर्ण काव्यांश तुकांत शैली के साथ उद्बोधन शैली में लिखा गया है ।

( v ) सामासिक शब्दावली का प्रयोग किया गया है ।

काव्यांश 2

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती ,

उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती ।

उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती ,

तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती ।

अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे ,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

शब्दार्थ

उदार – दानी , सहृदय

बखानना – वर्णन करना

धरा – धरती , पृथ्वी

कृतार्थ – धन्य होने का भाव , सौभाग्य

कीर्ति- यश

सृष्टि- ब्रह्मांड , संसार

कूजती- गूँजती

पूजती – सम्मान करना

असीम- अनंत , विशाल

विश्व – संसार

अखंड आत्म भाव – सब में अपना दर्शन करना

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि उदारता के भाव पर प्रकाश डालते हुए कहता है कि सरस्वती उसी उदार मनुष्य का गुणगान करती है , जो इस अनंत संसार के साथ अखंड आत्मीयता रखता है । पृथ्वी भी ऐसे उदार व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञ होती है । संसार भर में उनकी कीर्ति का यशोगान होता है । सब व्यक्ति उस उदार चेतना का सम्मान करते हैं । कवि का मानना है कि यही वह भाव है , जिससे वैश्विक एकता और अखंडता को एक नई दिशा मिलती है । वही मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य कहलाने के अधिकारी होते हैं , जो मनुष्यता की रक्षा के निमित्त अपने प्राणों का बलिदान देते हैं ।

काव्य सौंदर्य

( i ) कवि के अनुसार उदार व्यक्तियों का यश ही विश्व में फैलता है ।

( ii ) संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली का सुंदर प्रयोग है ।

( iii ) ‘ सदा सजीव ‘ , ‘ समस्त सृष्टि ‘ , ‘ कीर्ति कूजती ‘ , ‘ अखंड आत्म ‘ , ‘ उसी उदार ‘ आदि में अनुप्रास अलंकार है ।

( iv ) ‘ सजीव कीर्ति कूजती ‘ में मानवीकरण अलंकार का प्रयोग किया गया है ।

( v ) वीर रस का प्रयोग है ।

काव्यांश 3

क्षुधार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी ,

तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी ।

उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया ,

सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर – चर्म भी दिया ।

अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे ?

वही मनुष्य हैं कि जो मनुष्य के लिए मरे ।

शब्दार्थ

क्षुधार्त – भूख से पीड़ित

रंतिदेव – एक दानवीर राजा

करस्थ – हाथ में

दधीचि – एक प्रसिद्ध ऋषि , जिन्होंने देवताओं के कल्याणार्थ अपनी अस्थियाँ इंद्र को दे दीं , जिनके वज्र से इंद्र ने वृत्रासुर को हराया

अस्थिजाल- कंकाल , हड्डियों का ढाँचा

उशीनर- गांधार का राजा

क्षितीश – नृप

स्वमांस- अपने शरीर का मांस

सहर्ष – प्रसन्नतापूर्वक

कर्ण – कुंती का पुत्र ( दान देने के लिए प्रसिद्ध )

शरीर चर्म – कवच कुंडल

अनित्य- नश्वर

अनादि- अमर

जीव – आत्मा

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने महान् दानवीर राजाओं का उल्लेख करते हुए मनुष्यता शब्द का वास्तविक अर्थ परिभाषित किया है और मानव शरीर को नश्वर बताया है ।

कवि के अनुसार , परमदानी राजा रंतिदेव तीव्र भूख से व्याकुल होते हुए भी उन्होने एक भूखे व्यक्ति को देखकर अपने भोजन की थाली उसे दे दी थी । दधीचि ने मानवता के हितार्थ देवताओं एवं दानवों के युद्ध में देवताओं की विजय के लिए , योगबल से अपने अस्थिपंजर को भी दान कर दिया था ।

गांधार देश में राजा उशीनर ने एक पक्षी के प्राण बचाने के लिए अपने शरीर का मांस दान कर दिया । कुंती पुत्र दानवीर कर्ण ने अपने वचन की रक्षा के लिए अपने शरीर के अंग कवच और कुंडल भी दान कर दिए । यह संसार नश्वर है और मानव शरीर क्षणभंगुर है , इसलिए भयभीत होने से कोई लाभ नहीं है अर्थात् जब आत्मा अमर है तो फिर मनुष्य को इस नश्वर शरीर के नष्ट होने से भय नहीं होना चाहिए । अतः सच्चा मनुष्य वही है , जो संपूर्ण मानव जाति के लिए जीता है और मरता है ।

काव्य सौंदर्य

( i ) कवि ने परोपकार की महत्ता को समझाने के लिए पौराणिक प्रसंगों का उल्लेख किया है ।

( ii ) सरल – सहज खड़ी बोली के साथ संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दों का भी पर्याप्त प्रयोग किया गया है ।

( iii ) भाषा भावाभिव्यक्ति में पूरी तरह सक्षम है ।

( iv ) समस्त काव्यांश में दृष्टांत अलंकार मौजूद है ।

( v ) वीर रस का प्रयोग किया गया है ।

काव्यांश 4

सहानुभूति चाहिए , महाविभूति है यही ;

वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही ।

विरुद्धवाद बुद्ध का दया- प्रवाह में बहा ,

विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा ?

अहा ! वही उदार है परोपकार जो करे ,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

शब्दार्थ

सहानुभूति – एक – दूसरे के प्रति दुःख के भाव को अनुभव करना

महाविभूति – महान् व्यक्ति की गुणरूपी पूँजी

वशीकृता- सम्मोहित करना

मही – पृथ्वी

विरुद्धवाद – विरोधी बातें

विनीत – झुका हुआ

लोकवर्ग – लोगों के विभिन्न वर्ग

भावार्थ – राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त इन पंक्तियों में सहानुभूति और परोपकार की भावना एवं करुणा को मनुष्यता का सर्वोत्तम गुण मानते हैं । कवि ने इसी गुण को ‘ महाविभूति ‘ के नाम से विभूषित किया है । सहानुभूति एक श्रेष्ठ गुण है । दूसरों के दुःख को अपना दुःख मानना और उसी के अनुसार आचरण करना मनुष्य की संचित पूँजी है । पृथ्वी भी ऐसे महान् मनुष्यों की सेवा करती है । सहानुभूति के गुण से सुसज्जित ऐसे मनुष्यों को ही पूजनीय माना जाता है ।

महात्मा बुद्ध का तत्कालीन समाज उनका विरोधी था , परंतु उनकी दया भावना , सत्य , अहिंसा , प्रेम भावना ने विरोध के स्वर को धूमिल कर दिया । जो व्यक्ति उनके कट्टर विरोधी थे , वे भी उनकी महानता के सामने नतमस्तक हो गए और बौद्ध धर्म अपनाया । कवि के अनुसार , वही मनुष्य ‘ मनुष्यता के गुणों ‘ का प्रतिनिधि बन सकता है , जो उदार तथा परोपकारी है । दूसरों के हितार्थ अपना त्याग करने वाला मनुष्य ही बुद्ध जैसा महान् व परोपकारी बन सकता है । सच्चा मनुष्य वही है , जो अन्य मनुष्य के काम आता है तथा सबके लिए जीता – मरता है ।

काव्य सौंदर्य

( i ) उदारता , विनम्रता के सम्मुख सभी नतमस्तक हो जाते हैं ।

( ii ) सरल , सुबोध एवं सहज भाषा का प्रयोग हुआ है , जो भावाभिव्यक्ति में पूरी तरह सक्षम है ।

( iii ) खड़ी बोली के साथ – साथ तत्सम शब्दों का भी प्रयोग हुआ है ।

( iv ) प्रश्न शैली के कारण सौंदर्य में वृद्धि हुई है ।

( v ) दया प्रवाह में रूपक अलंकार है ।

( vi ) वीर रस की अभिव्यक्ति हुई है ।

काव्यांश 5

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में ,

सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में ।

अनाथ कौन है यहाँ ? त्रिलोकनाथ साथ हैं ,

दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं ।

अतीव भाग्यहीन हैं अधीर भाव जो करे ,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

शब्दार्थ

मदांध – गर्व से अंधा

तुच्छ – महत्त्वहीन , थोड़ा

वित्त – धन , संपत्ति

सनाथ – जिसके साथ ईश्वर हो . सर्वसमर्थ

अनाथ – बेसहारा

त्रिलोकनाथ- तीनों लोकों के स्वामी

दीनबंधु – दीनों के रक्षक

अतीव – अत्यधिक

भाग्यहीन- अभागा

अधीर – धैर्य न होना

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने धन के उन्माद में अहंकारी न होने की प्रेरणा दी है । कवि के अनुसार , धन की प्राप्ति कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं है , यह मात्र एक तुच्छ उपलब्धि है । इस पर कभी भूलकर भी घमंड मत करना । धन के बल पर या सांसारिक दृष्टि से स्वयं को सुरक्षित अनुभव करके अपने मन में अभिमान न करना यह न सोचना कि तुम तो सनाथ हो । धन या परिवार – जन तुम्हारे नाथ हैं , जो तुम्हारी रक्षा कर लेंगे । सोच कर देखो , इस संसार में कोई अनाथ नहीं है । सबके ही सिर पर भगवान त्रिलोकीनाथ का साया है वह ईश्वर दीनों का , गरीबों का सहारा है , दयालु है । उसकी शक्ति बहुत अधिक है । वह सबको सुरक्षा और सहारा देता है । अतः जो भी मनुष्य अपने मन में अधीरता रखता है , वह बहुत अभागा है । सच्चा मनुष्य तो वही है , जो दूसरे मनुष्यों के काम आता है । उनके लिए जीता और मरता है ।

काव्य सौंदर्य

( i ) कवि ने स्पष्ट किया है धन – दौलत देख कभी अहं भावना नहीं आनी चाहिए ।

( ii ) सरल , सहज एवं भावानुकूल भाषा का प्रयोग हुआ है ।

( iii ) संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग ।

( iv ) ‘ दयालु दीनबंधु ‘ में अनुप्रास अलंकार मौजूद है ।

( v ) तुकांत रचना है ।

( vi ) सामासिक शब्दावली के साथ उद्बोधन शैली का भी प्रयोग किया गया है ।

काव्यांश 6

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े ,

समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े – बड़े ।

परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी ,

अभी अमर्त्य अंक में अपंक हो चढ़ो सभी ।

रहो न यों कि एक से न काम और का सरे ,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

शब्दार्थ

अनंत – जिसका अंत न हो , असीमित

समक्ष- सामने

स्वबाहु – अपनी भुजाएँ

परस्परावलंब- एक – दूसरे की सहायता से

अमर्त्य – अंक , देवताओं की गोद

अपंक – कलंक रहित

काम सरे – काम निकले

भावार्थ – कवि के अनुसार , इस अपरिमित आकाश में असंख्य देवगण विराजमान हैं । वे अपने हाथ बढ़ाकर उदार हृदय , दयालु तथा परोपकारी मनुष्यों के स्वागतार्थ खड़े हैं । इसलिए तुम परस्पर एक – दूसरे के सहयोग से उन ऊँचाइयों को प्राप्त करो , जहाँ देवता स्वयं तुम्हें अपनी पवित्र गोद में बैठाने के लिए उत्सुक हों । देवताओं की पावन गोद में स्थान पाने के लिए अर्थात् अमरत्व प्राप्त करने के लिए तुम इस मरणशील संसार में निष्कलंक जीवन व्यतीत करते हुए एक – दूसरे के कल्याणार्थ कर्मरत् रहो । इन्हीं गुणों के माध्यम से हम जीवन में उत्कृष्टता को प्राप्त कर सकते हैं । हमारे जीवन का उद्देश्य दूसरों का कल्याण करते हुए स्वयं अपना उद्धार करना होना चाहिए । तुम इस तरह मत जियो कि एक – दूसरे के किसी काम न आ सको । तुम्हारे होने से किसी का कोई काम न बने । सच्चा मनुष्य वही है कि जो अन्य मनुष्यों के काम आए । कवि परस्पर सहायता द्वारा कार्यों की सिद्धि को महत्त्वपूर्ण मानता है ।

काव्य सौंदर्य

( i ) कवि यहाँ कलंक रहित जीवन जीने की प्रेरणा दे रहा है ।

( ii ) खड़ी बोली की रचना में प्रसंगानुसार तत्सम शब्दों का प्रयोग किया गया है ।

( iii ) ‘ बड़े – बड़े ‘ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है ।

( iv ) ‘ अनंत अंतरिक्ष ‘ और ‘ अमर्त्य अंक ‘ में अनुप्रास अलंकार है ।

( v ) संपूर्ण काव्यांश में तुकांत पद है ।

( vi ) उद्बोधन शैली के साथ ही सामासिक शब्दावली का प्रयोग किया गया है ।

काव्यांश 7

‘ मनुष्य मात्र बंधु हैं ‘ यही बड़ा विवेक है ,

पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है ।

फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं ,

परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं ।

अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे ,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

शब्दार्थ

मात्र – केवल

बंधु – भाई

विवेक- भले – बुरे का ज्ञान

पुराणपुरुष – पुराणों में जिसे पुरुष की संज्ञा दी गई

स्वयंभू – परमात्मा

बाह्य – बाहरी

भेद – अंतर

अंतरैक्य – आत्मा की एकता

प्रमाणभूत- साक्षी

अनर्थ- दुर्भाग्य

व्यथा – पीड़ा , दुःख

हरे- दूर करना

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने बंधुत्व की भावना को मनुष्य की सबसे बड़ी विवेकशीलता माना है । कवि कहता है – मनुष्य के लिए सबसे बड़ा विवेक यही है कि वह संसार के सभी मनुष्यों को अपना बंधु समझे । पुराणों के अनुसार , सभी मनुष्यों का एक ही पिता है । वह स्वयंभू ( परमात्मा ) है । यह ठीक है कि विविध कर्मों के फलानुसार सब आपस में भिन्न हैं अर्थात् जिसने जैसे कर्म किए उसे वैसा ही जन्म मिला , परंतु आंतरिक दृष्टि से सभी एक हैं , समान हैं । स्वयं वेद इस आंतरिक एकता के साक्षी हैं । अतः संसार में यह सबसे बड़ा पाप है कि कोई व्यक्ति अपने बंधु का कष्ट न हरे । सच्चा मनुष्य वही है कि जो अन्य मनुष्यों के लिए जीता है और मरता है ।

काव्य सौंदर्य

( i ) कवि ने इस काव्यांश के माध्यम से मनुष्यों को मिल – जुलकर एक – दूसरे का सहयोग करने का संदेश दिया है ।

( ii ) सरल , सुबोध एवं सहज भाषा भावों की अभिव्यक्ति में पूरी तरह सक्षम है ।

( iii ) खड़ी बोली की रचना में प्रसंगानुसार तत्सम शब्दों का भी प्रयोग किया गया है ।

( iv ) ‘ मनुष्य मात्र ‘ , ‘ पुराणपुरुष ‘ , ‘ पिता प्रसिद्ध ‘ में अनुप्रास अलंकार है ।

( v ) संपूर्ण काव्यांश में तुकांत पद का प्रयोग सहज रूप में हुआ है ।

( vi ) वीर रस की अभिव्यक्ति हुई है ।

काव्यांश 8

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए ,

विपत्ति , विघ्न जो पड़े उन्हें ढकेलते हुए ।

घटे न हेलमेल हाँ , बढ़े न भिन्नता कभी ,

अतर्क एक पंथ में सतर्क पंथ हों सभी ।

तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे ,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

शब्दार्थ

अभीष्ट – इच्छित

सहर्ष – प्रसन्नतापूर्वक

विपत्ति – कठिनाइयाँ , विघ्न बाधाएँ

हेलमेल- मेल – जोल

भिन्नता – अलग होने का भाव

अतर्क – तर्क से परे

सतर्क पंथ – सावधान यात्री

समर्थ – शक्तिशाली

तारता- उद्धार करता हुआ

भावार्थ – प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से कवि ने संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए लक्ष्य पथ की ओर आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दी है । कवि कहता है- हे पाठकों ! तुम जीवन में जिस मार्ग पर भी चलना चाहते हो , हँसी – खुशी से चलते चलो । रास्ते में जो भी संकट आएँ , बाधाएँ आएँ , उन्हें ढकेलते हुए आगे बढ़ते जाओ , परंतु यह ध्यान रखो कि तुम्हारा आपसी मेलजोल न घटे , मित्रता और एकता का भाव कम न हो । आपस की भिन्नता में वृद्धि न हो । मनुष्य – मनुष्य में वर्ग , जाति , रंग , रूप , प्रांत देश आदि के अंतर न बढ़े , सभी मत – पंथ और संप्रदाय सतर्क होकर उस तर्कातीत एकता को बढ़ाने में सहयोग दें । मनुष्य के लिए सबसे बड़ी सामर्थ्य यही है कि वह औरों का उद्धार करे तथा स्वयं भी तरे । वह जनकल्याण करते – करते तरे । सच्चा मनुष्य वही है जो औरों के काम आए ।

काव्य सौंदर्य

( i ) कवि ने इस काव्यांश के माध्यम से विश्वबंधुत्व की भावना उजागर की है ।

( ii ) सरल , सहज भाषा भावाभिव्यक्ति में पूरी तरह समर्थ है ।

( iii ) खड़ी बोली की रचना में तत्सम शब्दों का आवश्यकतानुसार समुचित प्रयोग हुआ है ।

( iv ) ‘ विपत्ति , विघ्न ‘ में अनुप्रास अलंकार है ।

( v ) संपूर्ण काव्यांश में तुकांत पदों का प्रयोग है ।

( vi ) उद्बोधन शैली के साथ सामासिक शब्दावली का प्रयोग किया गया है ।

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