NCERT Class 9 Kshitij Chapter 10 Dohe Explanation वाख

Kshitij Chapter 10 Dohe Explanation वाख

NCERT Class 9 Kshitij Chapter 10 Dohe Explanation वाख, (Hindi) exam are Students are taught thru NCERT books in some of the state board and CBSE Schools. As the chapter involves an end, there is an exercise provided to assist students to prepare for evaluation. Students need to clear up those exercises very well because the questions inside the very last asked from those.

Sometimes, students get stuck inside the exercises and are not able to clear up all of the questions.  To assist students, solve all of the questions, and maintain their studies without a doubt, we have provided a step-by-step NCERT Poem Explanation for the students for all classes.  These answers will similarly help students in scoring better marks with the assist of properly illustrated Notes as a way to similarly assist the students and answer the questions right.

NCERT Class 9 Kshitij Chapter 10 Dohe Explanation वाख

 

कवयित्री परिचय

जीवन परिचय – कश्मीरी भाषा की प्राचीन एवं लोकप्रिय कवयित्री ललद्यद का जन्म लगभग 1320 ई ० में श्रीनगर के पास सिमपुरा में हुआ था । कवयित्री के जीवन के बारे में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है । किंवदंतियों से पता चलता है कि उन्हें में लल्लेश्वरी , ललारिफा आदि नामों से भी जाना जाता है ।

रचना परिचय – ललद्यद का कोई प्रामाणिक काव्य नहीं है । उनके सैकड़ों वाख वर्षों से मौखिक रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्रचलित रहे हैं ।

काव्यगत विशेषताएँ – ललद्यद ने अपनी रचनाओं में धर्म की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर भक्ति के रास्ते पर चलने पर ज़ोर दिया है । उन्होंने प्रेम को महत्वपूर्ण बताया है । कबीर की तरह उन्होंने धार्मिक आडंबरों का विरोध किया है । वे मध्यम मार्ग अपनाकर प्रभु को पाने की प्रबल इच्छा रखती हैं ।

भाषा – शैली – ललयद की रचनाएँ ‘ वाख ‘ शैली में हैं । उनमें लोकजीवन के तत्व निहित हैं । उनकी रचनाएँ पंडिताऊ संस्कृत और फ़ारसी शब्दों से बोझिल नहीं हैं । उनकी भाषा सरल है । उनके ‘ वाख ‘ आम जनता में तुलसी की चौपाइयों तथा रसखान के सवैये की तरह लोकप्रिय हैं और उनको जबानी याद हैं । ।

 

भावार्थ

1. रस्सी कच्चे धागे की , खींच रही मैं नाव ।

जाने कब सुन मेरी पुकार , करें देव भवसागर पार ।

पानी टपके कच्चे सकोरे , व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे ।

जी में उठती रह – रह हूक , घर जाने की चाह है घेरे ।।

शब्दार्थ –

नाव – शरीर रूपी नाव

देव – प्रभु , ईश्वर

भवसागर – संसार रूपी सागर

कच्चे सकोरे – मिट्टी का बना छोटा पात्र, जिसे पकाया नहीं गया है

हूक – तड़प , वेदना

चाह – चाहत , इच्छा

भावार्थ- कवयित्री कहती है कि वह साँसों की कच्ची रस्सी के सहारे यह शरीर – रूपी नाव को खींच है । पता नहीं ईश्वर मेरी पुकार सुनकर मुझे भवसागर से कब पार करेंगे । जिस प्रकार कच्ची मिट्टी से बने पात्र से पानी टपक – टपककर कम होता रहता है , उसी तरह समय बीतता जा रहा है और प्रभु को पाने के मेरे प्रयास व्यर्थ सिद्ध हो रहे हैं । कवयित्री के मन में बार – बार एक ही पीड़ा उठती है कि कब यह नश्वर संसार छोड़कर प्रभु के पास पहुँच जाए और सांसारिक कष्टों से मुक्ति पा सके ।

2. खा – खाकर कुछ पाएगा नहीं ,

न खाकर बनेगा अहंकारी ।

सम खा तभी होगा समभावी ,

खुलेगी साँकल बंद द्वार की ।

शब्दार्थ –

अहंकारी – अभिमानी , घमंडी

सम- इंद्रियों का शमन

समभावी – समानता की भावना

साँकल – जंजीर

भावार्थ – कवयित्री मनुष्य को मध्यम मार्ग अपनाने की सीख देती हुई कहती है कि हे मनुष्य ! तू इन सांसारिक भोग – विलासिताओं में ‘ डूबा रहता है , इससे तुझे कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है । तू इस भोग के खिलाफ़ त्याग , तपस्या का जीवन अपनाएगा तो मन में अहंकार ही बढ़ेगा । तू इनके बीच का मध्यम मार्ग अपना | भोग – त्याग , सुख – दुख के मध्य का मार्ग अपनाने से ही प्रभु – प्राप्ति का बंद द्वार खुलेगा और प्रभु से मिलन होगा ।

3. आई सीधी राह से , गई न सीधी राह ।

जेब टटोली , कौड़ी न पाई ।

सुषुम – सेतु पर खड़ी थी , बीत गया दिन आह !

माझी को दूँ , क्या उतराई ?

शब्दार्थ –

राह – रास्ता

सुषुम – सुषुम्ना नामक नाड़ी

टटोली – खोजी

कौड़ी न पाई – कुछ भी न मिला

माँझी – नाविक ( प्रभु )

उतराई – पार उतारने का किराया

भावार्थ- कवयित्री कहती है कि प्रभु की प्राप्ति के लिए वह संसार में सीधे रास्ते से आई थी , किंतु यहाँ आकर मोहमाया आदि सांसारिक उलझनों में फँसकर अपना रास्ता भूल गई । वह जीवन भर सुषुम्ना नाड़ी के सहारे कुंडलिनी जागरण में लगी रही और इसी में जीवन बीत गया । जीवन के अंतिम समय में जब उसने जेब में खोजा तो कुछ भी न था । अब उसे चिंता सता रही है कि भवसागर से पार उतारने वाले प्रभु रूपी माँझी को उतराई के रूप में क्या देगी । अर्थात वह जीवन में कुछ न हासिल कर सकी ।

4. थल – थल में बसता है शिव ही ,

भेद न कर क्या हिंदू – मुसलमां ।

ज्ञानी है तो स्वयं को जान ,

वही है साहिब से पहचान ।

शब्दार्थ –

थल – ज़मीन , स्थान

शिव – प्रभु

साहिब – ईश्वर

भावार्थ – ईश्वर की सर्वत्र उपस्थिति के बारे में बताती हुई कवयित्री कहती है कि वह हर स्थान पर व्याप्त है । हे मनुष्य ! तू धार्मिक आधार पर हिंदू – मुसलमान का भेदभाव त्यागकर उसे अपना ले | ईश्वर को जानने से पहले तू खुद को पहचान , अपना आत्मज्ञान कर , इससे प्रभु से पहचान आसान हो जाएगी । अर्थात ईश्वर ही तो आत्मा रूप में हम सभी में निवास करता है ।

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