NCERT Class 10 Kshitij Chapter 2 Poem Explanation राम – लक्ष्मण – परशुराम संवाद

Kshitij Chapter 2 Poem Explanation राम – लक्ष्मण – परशुराम संवाद

NCERT Class 10 Kshitij Chapter 2 Poem Explanation राम – लक्ष्मण – परशुराम संवाद, (Hindi) exam are Students are taught thru NCERT books in some of the state board and CBSE Schools. As the chapter involves an end, there is an exercise provided to assist students to prepare for evaluation. Students need to clear up those exercises very well because the questions inside the very last asked from those.

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NCERT Class 10 Hindi Kshitij Chapter 2 Dohe Explanation राम – लक्ष्मण – परशुराम संवाद

 

पाठ की रूपरेखा

‘ राम – लक्ष्मण – परशुराम संवाद ‘ तुलसीदास की रचना ‘ रामचरितमानस ‘ के ‘ बालकांड ‘ का अंश है । इस अंश में सीता स्वयंवर में रामचंद्र द्वारा शिवधनुष भंग किए जाने के पश्चात् परशुराम का अत्यंत क्रोधावस्था में राजा जनक के दरबार में आने और राम – लक्ष्मण के साथ हुए उनके संवाद को प्रस्तुत किया गया है ।

प्रस्तुत प्रसंग की विशेषता है लक्ष्मण की वीर रस से भरी व्यंग्योक्तियाँ और परशुराम की क्रोधाभिव्यक्ति |

 

काव्यांशों का भावार्थ

काव्यांश 1

नाथ संभुधनु भंजनिहारा । होइहि केउ एक दास तुम्हारा ।।

आयेसु काह कहिअ किन मोही । सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ।।

सेवकु सो जो करै सेवकाई । अरिकरनी करि करिअ लराई ।।

सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा । सहसबाहु सम सो रिपु मोरा ।।

सो बिलगाउ बिहाइ समाजा । न त मारे जैहहिं सब राजा ।।

सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने । बोले परसुधरहि अवमाने ।

बहु धनुही तोरी लरिका । कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं ।।

येहि धनु पर ममता केहि हेतू । सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू ।।

दोहा

रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार ।

धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार ||

शब्दार्थ

संभु – शंभु / शिव

धनु – धनुष

भंजनिहारा – भंग करने वाला / तोड़ने वाला

केउ- कोई

आयेसु – आज्ञा

काह – क्या

मोही- मुझे

रिसाइ – क्रोध करना

कोही – क्रोधी

अरिकरनी – शत्रु का काम

लराई – लड़ाई

जेहि – जिसने

सम – समान

सो – वह

रिपु – शत्रु

बिलगाउ- अलग होना

बिहाइ – छोड़कर

जैहहिं – जाएँगे

अवमाने- अपमान करना

लरिकाईं – बचपन में

कबहुँ – कभी

असि- ऐसा

रिस – क्रोध

कीन्हि – किया

गोसाईं- स्वामी / महाराज ;

येहि – इस

भृगुकुलकेतू – भृगुकुल की पताका अर्थात् परशुराम

नृपबालक – राजपुत्र / राजा का बेटा

त्रिपुरारि – शिवजी

बिदित – जानता है

सकल – सारा

भावार्थ – परशुराम के क्रोध को देखकर जब जनक के दरबार में सभी लोग भयभीत हो गए तो श्रीराम ने आगे बढ़कर कहा- हे नाथ ! भगवान शिव के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा । आप बताइए कि क्या आज्ञा है , आप मुझसे क्यों नहीं कहते ? राम के वचन सुनकर क्रोधित परशुराम बोले- सेवक वह कहलाता है , जो सेवा का कार्य करता है । शत्रुता का काम करके तो लड़ाई ही मोल ली जाती है ।

हे राम ! मेरी बात सुनो , जिसने भगवान शिव जी के इस धनुष को तोड़ा है , वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है । वह इस समाज ( सभा ) को छोड़कर तुरंत अलग हो जाए , नहीं तो यहाँ उपस्थित सभी राजा मारे जाएँगे । परशुराम के इन क्रोधपूर्ण वचनों को सुनकर लक्ष्मण जी मुस्कुराए और परशुराम का अपमान करते हुए बोले- हे गोसाईं ! बचपन में हमने ऐसे छोटे – छोटे बहुत से धनुष तोड़ डाले थे , किंतु आपने ऐसा क्रोध तो कभी नहीं किया । इसी धनुष पर आपकी इतनी ममता क्यों है ?

लक्ष्मण की व्यंग्य भरी बातें सुनकर परशुराम क्रोधित स्वर में बोले- अरे राजा के पुत्र ! मृत्यु के वश में होने से तुझे यह भी होश नहीं कि तू क्या बोल रहा है ? तू सँभल कर नहीं बोल पा रहा है । समस्त विश्व में विख्यात भगवान शिव का यह धनुष क्या तुझे बचपन में तोड़े हुए धनुषों के समान ही दिखाई देता है ?

 

काव्यांश 2

लखन कहा हसि हमरे जाना । सुनहु देव सब धनुष समाना ।।

का छति लाभु जून धनु तोरें । देखा राम नयन के भोरें ।।

छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू । मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।।

बोले चितै परसु की ओरा । रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा ।।

बालकु बोलि बधौं नहि तोही । केवल मुनि जड़ जानहि मोही ।।

बाल ब्रह्मचारी अति कोही । बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही ।।

भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही । बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही । ।

सहसबाहुभुज छेदनिहारा । परसु बिलोकु महीपकुमारा ।।

दोहा

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर ।

गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर ।।

शब्दार्थ

हसि – हँसकर

हमरे- मेरे

सुनहु – सुनो

छति- क्षति / नुकसान

जून- पुराना

तोरें – तोड़ने में

भोरें- धोखे में

छुअत टूट – छूते ही टूट गया

रघुपतिहु राम का

दोसू- दोष / गलती

काज- कारण

रोसु – क्रोध

चितै- देखकर

परसु – फरसा

सठ – दुष्ट

सुनेहि – सुना है

सुभाउ- स्वभाव

बधौं – वध करता हूँ

तोही – तुझे

बिस्वबिदित- दुनिया में प्रसिद्ध

भुजबल – भुजाओं के बल से

भूप- राजा

बिपुल- बहुत

महिदेवन्ह- ब्राह्मणों को

छेदनिहारा – काट डाला

बिलोकु- देखकर

महीपकुमारा- राजकुमार

गर्भन्ह- गर्भ के

अर्भक – बच्चा

दलन – कुचलने वाला

भावार्थ – लक्ष्मण जी हँसकर परशुराम से बोले – हे देव ! सुनिए , मेरी समझ के अनुसार तो सभी धनुष एक समान ही होते हैं ।

लक्ष्मण श्रीराम की ओर देखकर बोले इस धनुष के टूटने से क्या लाभ है तथा क्या हानि , यह बात मेरी समझ में नहीं आई है । श्रीराम ने तो इसे केवल छुआ था , लेकिन यह धनुष तो छूते ही टूट गया । फिर इसमें श्रीराम का क्या दोष है ? मुनिवर ! आप तो बिना किसी कारण के क्रोध कर रहे हैं ?

लक्ष्मण की व्यंग्य भरी बातों को सुनकर परशुराम का क्रोध और बढ़ गया और वह अपने फरसे की ओर देखकर बोले- अरे दुष्ट ! क्या तूने मेरे स्वभाव के विषय में नहीं सुना ? मैं तुझे बालक समझकर नहीं मार रहा हूँ । अरे मूर्ख ! क्या तू मुझे केवल मुनि समझता है ? मैं बाल ब्रह्मचारी और अत्यंत क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति हूँ ।

मैं पूरे विश्व में क्षत्रिय कुल के घोर शत्रु के रूप में प्रसिद्ध हूँ । मैंने अपनी इन्हीं भुजाओं के बल से पृथ्वी को कई बार राजाओं से रहित करके उसे ब्राह्मणों को दान में दे दिया था । हे राजकुमार ! मेरे इस फरसे को देख , जिससे मैंने सहस्रबाहु की भुजाओं को काट डाला था ।

अरे राजा के बालक लक्ष्मण ! तू मुझसे भिड़कर अपने माता – पिता को चिंता में मत डाल । अपनी मौत न बुला । मेरा फरसा बहुत भयंकर है । यह गर्भो में पल रहे बच्चों का भी नाश कर डालता है ।

 

काव्यांश 3

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी । अहो मुनीसु महाभट मानी ।।

पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु चहत उड़ावन फूँकि पहारू ।।

इहाँ कुम्हड़बतिआ कोउ नाहीं । जे तरजनी देखि मरि जाहीं ।।

देखि कुठारु सरासन बाना । मैं कछु कहा सहित अभिमाना ।।

भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी । जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी ।।

सुर महिसुर हरिजन अरु गाईं । हमरे कुल इन्ह पर न सुराई ।।

बधे पापु अपकीरति हारें । मारतहू पा परिअ तुम्हारें ।।

कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा । ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा ।।

दोहा

जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर ।

सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर । ।

शब्दार्थ

बिहसि – हँसकर

मृदु कोमल – बानी बोली

मुनीसु- महामुनि

महाभट – महान् योद्धा

कुठारु- फरसा / कुल्हाड़ा

इहाँ – यहाँ

कुम्हड़बतिआ – सीताफल / कुम्हड़ा का छोटा फल

तरजनी- अँगूठे के पास की अँगुली

सरासन बाना- धनुष – बाण

भृगुसुत – भृगुवंशी

महिसुर – ब्राह्मण

हरिजन- ईश्वर भक्त

सुराई – वीरता दिखाना

अपकीरति – अपयश

पा- पैर

कुलिस- वज्र / कठोर

सरोष – क्रोध में भरकर

गिरा – वाणी

भावार्थ – परशुराम के क्रोधित वचनों को सुनकर लक्ष्मण अत्यंत कोमल वाणी में हँसकर बोले- मुनिवर ! आप तो अपने आप को बहुत बड़ा योद्धा समझते हैं और बार – बार मुझे फरसा दिखाते हैं । मुझे तो ऐसा लगता है कि आप फूँक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं , परंतु मुनिवर ! यहाँ पर कोई भी कुम्हड़े के छोटे फल के समान नहीं हैं , जो तर्जनी उँगली को देखते ही मर जाएँ ।

मुनि जी ! मैंने आपके हाथ में फरसा और धनुष – बाण देखकर ही अभिमानपूर्वक आपसे कुछ कहा था । मैं आपको भृगुवंशी समझकर और आपके कंधे पर जनेऊ देखकर अपने क्रोध को सहन कर रहा हूँ । हमारे कुल की यह परंपरा है कि हम देवता , ब्राह्मण , भगवान के भक्त और गाय , इन सभी पर वीरता नहीं दिखाया करते , क्योंकि इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपकीर्ति होती है । इसलिए यदि आप मुझे मार भी दें तो भी मैं आपके पैर ही पहूँगा । हे महामुनि ! आपका तो एक – एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान कठोर है । आपने व्यर्थ में ही फरसा और धनुष धारण किया हुआ है ।

यदि मैंने आपको देखकर कुछ गलत कह दिया हो , तो हे धैर्यवान महामुनि ! मुझे क्षमा कर दीजिएगा । लक्ष्मण के यह व्यंग्य – वचन सुनकर भृगुवंशी परशुराम क्रोध में आकर गंभीर स्वर में बोलने लगे ।

 

काव्यांश 4

कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु | कुटिलु कालबस निज कुल घालकु ।।

भानुबंस राकेस कलंकू । निपट निरंकुसु अबुधु असंकू ।।

कालकवलु होइहि छन माहीं । कहीं पुकारि खोरि मोहि नाहीं ।।

तुम्ह हटकहु जौ चहहु उबारा । कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा ।।

लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा । तुम्हहि अछत को बरनै पारा ।।

अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी । बार अनेक भाँति बहु बरनी ।।

नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू ।।

बीरबती तुम्ह धीर अछोभा । गारी देत न पावहु सोभा ।।

दोहा

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु ।

बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ।।

शब्दार्थ

कौसिक – विश्वामित्र

कुटिलु- दुष्ट

कालबस- मृत्यु के वशीभूत

घालकु- घातक

भानुबंस- सूर्यवंशी

राकेस कलंकू – चंद्रमा का कलंक

निपट- पूरी तरह

निरंकुसु- जिस पर किसी का वश न चले

अबुधु – नासमझ

असंकू – शंकारहित

कालकवलु – काल का ग्रसित / मृत

छन माहीं- क्षण भर में

खोरि – दोष

हटकहु – रोको

उबारा- बचाना

सुजसु – सुयश / सुकीर्ति

करनी – काम

बरनी – वर्णन किया

दुसह – असह्य

बीरब्रती – वीरता का व्रत धारण करने वाला

अछोभा – क्षोभरहित

गारी – गाली

सूर – शूरवीर

समर – युद्ध

रन – युद्ध

कथहिं प्रतापु – प्रताप की डींग मारना

भावार्थ – परशुराम को लक्ष्मण की व्यंग्य भरी बातों को सुनकर और क्रोध आ गया और वह विश्वामित्र से बोले – हे विश्वामित्र ! यह बालक ( लक्ष्मण ) बहुत कुबुद्धि और दुष्ट है । यह काल ( मृत्यु ) के वश में आकर अपने कुल का घातक बन रहा है । यह सूर्यवंशी बालक चंद्रमा पर लगे हुए कलंक के समान है । मुझे यह पूरी तरह उदंड , मूर्ख और निडर लगता है । अभी यह क्षणभर में काल का ग्रास हो जाएगा अर्थात् मैं क्षणभर में इसे मार डालूँगा । मैं अभी से यह बात कह रहा हूँ , बाद में मुझे दोष मत दीजिएगा । यदि आप इसे बचाना चाहते हैं , तो इसे मेरे प्रताप , बल और क्रोध के विषय में बताकर अधिक बोलने से मना कर दीजिए ।

लक्ष्मण इतने पर भी नहीं माने और परशुराम को क्रोध दिलाते हुए बोले- हे मुनिवर ! आपका सुयश आपके रहते हुए दूसरा कौन वर्णन कर सकता है ? आप तो अपने ही मुँह से अपनी करनी और अपने विषय में अनेक बार अनेक प्रकार से वर्णन कर चुके हैं । यदि इतना सब कुछ कहने के बाद भी आपको संतोष नहीं हुआ हो , तो कुछ और कह दीजिए । अपने क्रोध को रोककर असह्य दुःख को सहन मत कीजिए । आप वीरता का व्रत धारण करने वाले , धैर्यवान और क्षोभरहित हैं , आपको गाली देना शोभा नहीं देता ।

जो शूरवीर होते हैं , वे अपनी करनी युद्ध में दिखाते हैं , बातों से अपना वर्णन नहीं करते । शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर भी अपने प्रताप की व्यर्थ बातें करने वाला कायर ही हो सकता है ।

 

काव्यांश 5

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा । बार बार मोहि लागि बोलावा ।।

सुनत लखन के बचन कठोरा । परसु सुधारि धरेड कर घोरा ।।

अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू । कटुबादी बालकु बधजोगू ।।

बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा । अब येहु मरनिहार भा साँचा ।।

कौसिक कहा छमिअ अपराधू बाल दोष गुन गनहिं न साधू ।।

खर कुठार मैं अकरुन कोही । आगे अपराधी गुरुद्रोही ।।

उतर देत छोड़ौं बिनु मारे । केवल कौसिक सील तुम्हारे ।।

न त येहि काटि कुठार कठोरे । गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे ।।

दोहा

गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ ।

अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ ।।

शब्दार्थ

कालु – काल / मृत्यु

हाँक – आवाज़ लगाना

जनु – जैसे

सुधारि – सुधारकर

कर – हाथ

कटुबादी – कड़वे वचन बोलने वाला

बधजोगू – मारने योग्य

बाँचा – बचाया

मरनिहार – मरने वाला

साँचा- सच में ही

खर – दुष्ट

अकरुन- जिसमें दया और करुणा न हो

गुरहि- गुरु के

उरिन – ॠण से मुक्त

गाधिसूनु – गाधि के पुत्र अर्थात् विश्वामित्र

हरियरे – हरा ही हरा

अयमय- लोहे की बनी हुई

खाँड़ – तलवार

ऊखमय – गन्ने से बनी हुई

अजहुँ – अब भी

भावार्थ – लक्ष्मण परशुराम से बोले मुझे ऐसा लग रहा है मानो आप काल को हाँक ( आवाज़ ) लगाकर बार – बार उसे मेरे लिए बुला रहे हैं । लक्ष्मण जी के ऐसे कठोर वचन सुनते ही परशुराम का क्रोध और बढ़ गया । उन्होंने अपने भयानक फरसे को घुमाकर अपने हाथ में ले लिया और बोले- अब लोग मुझे दोष न दें । इतने कड़वे वचन बोलने वाला यह बालक मारे जाने योग्य है । बालक देखकर इसे मैंने बहुत बचाया , पर अब यह सचमुच मरने वाला है । परशुराम के क्रोध को देखकर विश्वामित्र उठ खड़े हुए और बोले- अपराध क्षमा कीजिए बालकों के दोष और गुण को साधु लोग नहीं गिना करते तब परशुराम ने कहा कि ये मेरा दुष्ट फरसा है , मैं स्वयं दयारहित और क्रोधी हूँ , उस पर यह गुरुद्रोही मेरे सामने उत्तर दिए जा रहा है ।

हे विश्वामित्र ! केवल आपके शील के कारण ही मैं इसे मारे बिना छोड़ रहा हूँ , नहीं तो इसे इस कठोर फरसे से काटकर थोड़े ही परिश्रम से गुरु के ऋण से मुक्त हो जाता ।

परशुराम के वचन सुनकर विश्वामित्र ने अपने हृदय में हँसकर सोचा- मुनि परशुराम को हरा – ही – हरा सूझ रहा है अर्थात् चारों ओर विजयी होने के कारण ये राम और लक्ष्मण को साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं । मुनि अब भी नहीं समझ रहे हैं कि ये दोनों बालक लोहे की बनी हुई तलवार हैं , गन्ने के रस की नहीं , जो मुँह में लेते ही गल जाएँ अर्थात् राम – लक्ष्मण सामान्य वीर न होकर बहुत पराक्रमी योद्धा हैं । मुनि परशुराम जी अज्ञानियों की तरह इनके प्रभाव को समझ नहीं पा रहे हैं ।

 

काव्यांश 6

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा । को नहि जान बिदित संसारा ।।

माता पितहि उरिन भये नीकें । गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें ।।

सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा । दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा ।।

अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली । तुरत देउँ मैं थैली खोली ।।

सुनि कटु बचन कुठार सुधारा । हाय हाय सब सभा पुकारा ।

भृगुबर परसु देखाबहु मोही । बिप्र बिचारि बचौं नृपद्रोही ।।

मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े । द्विजदेवता घरहि के बाढ़े ।।

अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे । रघुपति सयनहि लखनु नेवारे ।।

दोहा

लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु ।

बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु ||

शब्दार्थ

सीलु – शील – स्वभाव

बिदित- पता है

उरिन – ऋणमुक्त

भये – हो गए

नीकें – भली प्रकार

हमरेहि- मेरे ही

ब्यवहरिआ – हिसाब लगाने वाले को

बिप्र – ब्राह्मण

सुभट- बड़े – बड़े योद्धा

द्विजदेवता – ब्राह्मण

सयनहि- आँख के इशारे से

नेवारे – मना किया

कृसानु – अग्नि

रघुकुलभानु – रघुवंश के सूर्य श्रीरामचंद्र

भावार्थ – लक्ष्मण ने परशुराम से कहा- हे मुनि ! आपके शील स्वभाव के बारे में कौन नहीं जानता ? वह संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध है । आप माता – पिता के ऋण से तो अच्छी तरह मुक्त हो गए । अब केवल गुरु का ऋण शेष रह गया है , जिसका आपके जी पर बड़ा बोझ है । शायद यह ऋण हमारे ही माथे पर था । बहुत दिन बीत गए , इस पर ब्याज़ भी बहुत चढ़ गया होगा । अब किसी हिसाब करने वाले को बुला लाइए तो मैं तुरंत ही थैली खोलकर धनराशि दे देता हूँ । लक्ष्मण के कटु वचन सुनकर जब परशुराम ने अपना फरसा सँभाला तो सारी सभा हाय – हाय करके पुकारने लगी ।

लक्ष्मण बोले – हे भृगुश्रेष्ठ ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं , पर हे राजाओं के शत्रु ! मैं ब्राह्मण समझकर आपको बचा रहा हूँ । मुझे लगता है आपको कभी युद्ध के मैदान में वीर योद्धा नहीं मिले हैं । हे ब्राह्मण देवता ! आप घर में ही अपनी वीरता के कारण फूले – फूले फिर रहे हैं अर्थात् अत्यधिक खुश हो रहे हैं । लक्ष्मण के ऐसे वचन सुनकर सभा में उपस्थित सभी लोग यह अनुचित है , यह अनुचित है ‘ कहकर पुकारने लगे । यह देखकर श्रीराम ने लक्ष्मण को आँखों के इशारे से रोक दिया ।

लक्ष्मण के उत्तर परशुराम की क्रोधाग्नि में आहुति के सदृश कार्य कर रहे थे । इस क्रोधाग्नि को बढ़ते देख रघुवंशी सूर्य राम , लक्ष्मण के वचनों के विपरीत , जल के समान शांत करने वाले वचनों का प्रयोग करते हुए परशुराम जी से लक्ष्मण को क्षमा करने की विनती करने लगे ।

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